________________
२८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६
सदस्यता सबके लिये खुली हुयी थी। समाज के निम्नतम वर्ग को भी इसके सदस्य होने का अधिकार था। तथागत का द्वार सबके लिये सर्वदा खुला था। शास्ता के शासन और और संघ में कोई भेदभाव न था। भगवान ने कहा हैभिक्षुओं! जैसे स्वच्छ, मधुर, शीतल, जलवाली, रमणीय घाटों वाली पुष्करिणी पूरब दिशा से धूप में तपे तथा तृषित मनुष्य की पिपासा को दूर करती है, ताप को दूर करती है, वैसे ही पश्चिम दिशा उत्तर तथा दक्षिण दिशा में तपे तथा तृषित मनुष्य की पिपासा को शान्त करती है, ताप को दूर करती है। उसी प्रकार क्षत्रिय कुल का, ब्राह्मण कुल का, वैश्य कुल का व्यक्ति समान रूप से प्रव्रजित होता है, शान्ति प्राप्त करता है। संघ पूर्णत: आध्यात्मिक संस्था थी। किन्तु इस सामान्य सिद्धान्त के कुछ अपवाद थे तथा निम्नलिखित वर्गों के व्यक्ति संघ की सदस्यता से वंचित थे। १. कुष्ठ, गण्ठ, सूखा कोढ़ (किलास), शोष (क्षय), तथा अमस्मार (मिर्गी) . इन पांच रोगों से ग्रस्त - (महावग्ग १, ३१)। २. राजकीय सेवा में नियुक्त (वही १, ४०)। . ३. उद्घोषित चोर (वही १, ४३)। ४. कशाघात अथवा चिन्ह के अंकन द्वारा दण्डित (महावग्ग १, ४४, ४५)। ५. ऋणी (वही १, ४६)। ६. दास (वही, १, ४७)। ७. पन्द्रह वर्ष से कम आयु का बालक। ८. विकृत शरीर वाला (महावग्ग १, १७)।
उपरिनिर्दिष्ट श्रेणियों में से किसी के अन्तर्गत न आने वाला व्यक्ति प्रव्रज्या और उपसम्पदा नामक दीक्षाओं द्वारा बौद्ध संघ में दीक्षित किया जा सकता था। दीक्षित होने के लिए इच्छुक व्यक्ति बुद्ध के पास जाता और वे उसे कहते “आओ भिक्खु, धम्म अच्छी तरह व्याख्यात है, दुःखों के पूर्ण अन्त के लिये ब्रह्मचर्य का आचरण करो"५। अपने पहले शिष्यों को भगवान् बुद्ध ने स्वयं ही प्रव्रज्या दी थी। परन्तु बाद में भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। अत: संघ की भी वृद्धि होने लगी। तथागत ने कुछ चुने हुये भिक्षुओं को प्रव्रज्या तथा उपसम्पदा देने की अनुमति दी, जो व्यक्ति दीक्षा प्राप्त करना चाहता, उसको केश और दाढ़ी मुंड़वा कर काषाय वस्त्र पहन कर, उत्तरासंग एक कन्धे में कर, बैठकर हाथ जोड़ कर तीन बार यह कहना पड़ता था- "बुद्ध शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि।६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org