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श्रमण, वर्ष ५७, अंक २
अप्रैल-जून २००६ |
बौद्ध भिक्षु संघ का विकास और नियम
डा० कमलेश दूबें
महात्मा बुद्ध का जन्म गणतन्त्रात्मक शासन प्रणाली के राज परिवार में हुआ था। इसी गणतंत्रात्मक आधार पर उन्होंने अपने भिक्षु संगठन का नाम "संघ" रखा था। वास्तव में उनका बौद्ध संघ एक धार्मिक गणतंत्र था। तथागत ने सर्वप्रथम वाराणसी में ऋषिपत्तन मृगदाव में धर्म का उपदेश दिया जिसे 'धम्मचक्कपवत्तन सुत्त' कहते हैं। विनयपिटक के महावग्ग से ज्ञात होता है कि सारनाथ में तथागत की धर्मदेशना सुन कर सबसे पहले कौडिन्य नाम के पंचवर्गीय भिक्षु ने विमल ‘धर्मचक्षु' प्राप्त कर उनके निकट प्रव्रज्या ली। इसके अनन्तर वप्र (बप्प), भद्रिक (भद्दीय), महानाम और अश्वजित नाम के अन्य पंचवर्गीय भिक्षुओं ने भी धर्मचक्षु और प्रव्रज्या का लाभ लिया तथा इस प्रकार आर्य भिक्षु संघ की स्थापना हुई। वाराणसी के श्रेष्ठिपुत्र यश और उसके मित्र विमल सुबाह, पूर्णजित और गवाम्यात तथा अन्य पचास मित्रों के प्रव्रज्या ग्रहण करने पर संघ में साठ भिक्षु हो गये। इनको भगवान बुद्ध ने नाना दिशाओं में जाकर प्रवज्या और उपसम्पदा देने की अनुमति प्रदान की। वाराणसी से गया जाते हुए तथागत ने तीस भद्रवर्गीय मित्रों को शासन में प्रतिष्ठित किया और १००० जटिलों को संघ में आकृष्ट किया। राजगृह में मगधराज बिम्बिसार ने उनकी शरण ली और वेणुवन उद्यान भिक्षु संघ को दिया। राजगृह में ही संजयपरिव्राजक के १५० शिष्यों ने संघ में प्रवेश किया और इस प्रकार स्पष्ट होता है कि संघ की बहुत शीघ्र ही वृद्धि हुई और प्रचार हुआ।
इन प्रमाणों से कोई संशय नहीं रहता कि बुद्ध के समय के बहुत पूर्व बहसंख्यक संन्यासी किसी प्रकार के संगठन के अन्तर्गत मिलकर एक साथ रहा करते थे। उनका संगठन निश्चित नियमों और उपनियमों द्वारा प्रेरित था।
किसी भी प्रकार के वर्गभेद अथवा जातिभेद के बिना बौद्ध संघ की * प्रवक्ता, प्राचीन इतिहास, अग्रसेन कन्या स्वायत्तशासी पी.जी. कालेज,
वाराणसी।
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