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________________ जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में सांख्य का विकासवाद : २५ इन्हें इन्द्रियाँ नहीं कह सकते। यदि इतर अवयवों द्वारा न किये जाने वाले कार्यों के कर्तृत्व का अभाव होने पर भी वाक् आदि को इन्द्रिय माना जाय, तो इन्द्रियों की ग्यारह संख्या ही नहीं बन सकती, क्योंकि शरीर के अन्य अंग-उपांगों के भी इन्द्रियत्व का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। इसके अतिरिक्त सांख्य दार्शनिकों की यह मान्यता कि अनेक पुरुषों के आश्रय से रहने वाली प्रकृति के ही संसार, बन्ध, और मोक्ष होते हैं, पुरुष के नहीं; सर्वथा अनुचित है।१६ क्योंकि सांख्यवादियों के मत में यदि अनादि भव-परम्परा से बद्ध पुरुष के विवेक को न समझने वाले अपृथग्भाव को बन्ध नहीं कहते, तो फिर सांख्य मत में बन्ध का क्या लक्षण है? यदि यह कहा जाय कि उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थों का कारण प्रकृति है तो सांख्यवादियों ने नामान्तर से कर्म को ही स्वीकार किया है; क्योंकि कर्म का यह स्वरूप है और वह अचेतन है। अतएव बन्ध पुरुष के ही मानना चाहिए, प्रकृति के नहीं। जैन दर्शन के अनुसार सांख्य सम्मत प्राकृतिक, वैकारिक और दाक्षिण तीनों प्रकार का बन्ध मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग में गर्भित हो जाता है, अतएव उसे पृथक् स्वीकार करना ठीक नहीं। अतएव जीव के बन्ध सिद्ध होने पर, जीव के ही संसार की भी सिद्धि होती है तथा, जो बंधता है, वह कभी मुक्त भी होता है, अतएव बन्ध और मोक्ष का एक ही अधिकरण होने से पुरुष के ही मोक्ष की सिद्धि होती है। इसलिए 'पुरुष का न 'बन्ध' होता है, न 'मोक्ष' यह कहना अयुक्तियुक्त है। इसके अतिरिक्त सांख्यों का यह कहना कि जिस समय प्रकृति और पुरुष में विवेकख्याति उत्पन्न होती है, प्रकृति प्रवृत्ति से मुँह मोड़ लेती है, उस समय पुरुष अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है, इसे ही मोक्ष कहते हैं यह भी उचित नहीं है, क्योंकि प्रकृति का स्वभाव प्रवृत्ति करना ही है, अतएव वह प्रकृति प्रवृत्ति से उदासीन नहीं हो सकती। जैनदर्शन का आक्षेप है कि सांख्य की प्रकृति अचेतन है, अतएव वह विचारपूर्वक प्रवृत्ति नहीं कर सकती तथा जिस प्रकार विषय का एक बार उपभोग करने पर भी फिर से उसी विषय के लिए प्रकृति की प्रवृत्ति होती है (क्योंकि प्रकृति प्रवृत्तशील है), वैसे ही विवेकख्याति होने पर भी फिर से पुरुष में प्रकृति की प्रवृत्ति होनी चाहिए, क्योंकि प्रकृति का स्वभाव प्रवृत्ति करने का है। इस सन्दर्भ में उनका नटी का दृष्टांत उलटा सांख्य के सिद्धान्त का घातक है। क्योंकि दर्शकों को एक बार नृत्य दिखाकर चले जाने पर भी अच्छा नृत्य होने से दर्शकों के आग्रह से नर्तकी फिर से अपना नाच दिखाने लगती है, वैसे, ही पुरुष को अपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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