________________
जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में सांख्य का विकासवाद : २३
पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्चकर्मेन्द्रियाँ और पञ्चतन्मात्राएँ, ये सोलह तत्त्व केवल कार्य हैं। पुरुष कार्यकारणभाव से परे है। वह न कारण है और न कार्य।९ पुरुष प्रकृति से सर्वथा विपरीत और स्वतंत्र है तथा इस सृष्टि व्यापार से अलिप्त है। वस्तुतः सांख्य दर्शन द्वैतवादी है। जिसके अनुसार प्रकृति और पुरुष दो ही मूल तत्त्व हैं। जो अनादि, नित्य, शाश्वत तथा विभु हैं। ये दोनों तत्त्व प्रलयावस्था में भी विद्यमान रहते हैं। इनमें प्रकृति अचेतन तथा पुरुष चेतन है। पुरुष के संयोग से ही परिणामिनी प्रकृति से समस्त सृष्टि (व्यक्त) का आविर्भाव होता है और ये सर्ग एवं प्रलय चक्रवत् चलते रहते हैं।
सांख्य के इस प्रयोजनात्मक विकासवाद का उद्देश्य है- पुरुष को भोग तथा कैवल्य प्रदान करना। प्रकृति-पुरुष के भेदरूप ज्ञान के अभाव में अविद्या या अज्ञान के कारण पुरुष नाना प्रकार की योनियों को धारण करके अनेक प्रकार के लोकों में शुभाशुभ कर्मों को करता हुआ एवं तदनुसार फलों का उपभोग करता हुआ संसरण करता रहता है। प्रकृति-पुरुष के भेद अर्थात् सत्त्वपुरुषान्यताख्याति का ग्रहण होने से पुरुष को मोक्ष की प्राप्ति होती है और इस प्रकार विकास का प्रयोजन पूर्ण होता है।
आइये देखें सांख्य के इस विकासवाद पर जैन दर्शन की क्या प्रतिक्रिया है।
सांख्य के विकासवादी दृष्टिकोण को दोषपूर्ण बताते हुए जैन दार्शनिक सांख्य मत का खण्डन करते हैं। उस पर आक्षेप उठाते हुए वे कहते हैं कि सांख्यों का चेतनशक्ति को ज्ञान, से शून्य मानना परस्पर विरुद्ध है।११ यदि चेतनशक्ति 'स्व' और 'पर' का ज्ञाव कराने में असमर्थ है, तो उसे चेतन शक्ति नहीं कहा जा सकता तथा अमूर्त चेतनशक्ति का बुद्धि में प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता, क्योंकि मूर्त पदार्थ का ही प्रतिबिम्ब पड़ता है। चेतनशक्ति को परिणमनशील और कर्ता माने बिना चेतनशक्ति का बुद्धि में परिवर्तन होना भी सम्भव नहीं है। पूर्व रूप के त्याग और उत्तर रूप के ग्रहण किये बिना पुरुष सुख-दुःख का भोक्ता नहीं कहला सकता। इस पूर्वाकार के त्याग और उत्तराकार का ग्रहण मानने से पुरुष को निष्क्रिय नहीं कह सकते। इससे सक्रियत्व की सिद्धि होती है। तथा सांख्यों का यह कहना कि प्रतिसंक्रमशून्य पुरुष में होनेवाला प्रतिसंक्रम (प्रतिबिम्बित होना) औपचारिक ही है, उचित और मान्य नहीं हो सकता; क्योंकि तत्त्वों का निर्णय करने में उपचार अनुपयोगी होता है। ऐसी अवस्था में, अर्थात् परिणामी पदार्थ का प्रतिसंक्रम औपचारिक होने से प्रत्येक आत्मा में पाया जाने वाला सुख-दुःख का अनुभव निराधार होना चाहिए, क्योंकि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org