________________
२२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६
हैं। इस प्रकार ज्ञान प्राप्ति में इन तेरह तत्त्वों का सहयोग होता है, इसलिए इन्हें 'करण' अर्थात् “साधन' कहा गया है। सांख्य दर्शन में सामान्यत: त्रयोदश करणों
और पञ्चतन्मात्राओं इन अठारह तत्त्वों के समूह को सूक्ष्म शरीर कहा गया है। सृष्टि के आरम्भ में प्रकृति द्वारा प्रत्येक पुरुष के लिए एक विशेष प्रकार का आवरण तैयार होता है, जिसे सूक्ष्म शरीर अथवा लिङ्ग कहते हैं। सूक्ष्म शरीर के भोगसम्पादनार्थ स्थूल शरीर की रचना होती है। स्थूल शरीर का निर्माण स्थूल भूत तत्त्वों से होता है।
इस प्रकार सांख्य दर्शन में प्रकृति से महाभूतों की उत्पत्ति तक सृष्टि के दो रूप दिखायी देते हैं- प्रत्यय सर्ग या बुद्धि सर्ग और तन्मात्र सर्ग या भौतिक सर्ग। प्रत्यय सर्ग में बुद्धि, अहङ्कार और एकादश इन्द्रियों का आविर्भाव होता है। भौतिक सर्ग में पञ्चतन्मात्राओं और पञ्चमहाभूतों का विकास सम्मिलित है। सर्वप्रथम प्रत्यय सर्ग की सृष्टि होती है, तत्पश्चात् भौतिक सर्ग की उत्पत्ति होती है। बुद्धि सर्ग के विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि और सिद्धि- ये चार भेद हैं। जिनमें विपर्यय के अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश पाँच प्रकार हैं। अशक्तियाँ अट्ठाइस प्रकार की हैं, जिसके अन्तर्गत ग्यारह इन्द्रिय वध तथा सत्रह बुद्धि वध सम्मिलित हैं। प्रकृति, उपादान, काल, भाग्य पार, सुपार, पारापार, अनुत्तमाम्भ एवं उत्तमाम्भ ये नौ तुष्टियाँ हैं तथा ऊह, शब्द, अध्ययन, त्रिविध दुःख विनाश, सुहृत्प्राप्ति एवं दान भेद से आठ प्रकार की सिद्धियाँ होती हैं। भौतिक सर्ग के अन्तर्गत सांख्य ने आठ प्रकार की देवसृष्टि, पाँच प्रकार की तिर्यक् सृष्टि एवं एक प्रकार की मानषी सृष्टि को सम्मिलित कर, उसे चौदह प्रकार का बताया है। इस प्रकार सांख्य दर्शन में विश्व-व्याख्या की विस्तृत विवेचना की गयी है। सांख्य का सृष्टि-क्रम सूक्ष्म से स्थूल की ओर माना गया है। सर्वप्रथम बुद्धि की उत्पत्ति होती है, जो सबसे सूक्ष्म है और अन्त में पञ्चमहाभूतों का विकास होता है, जो इस क्रम से सबसे स्थूल हैं।
इस प्रकार सांख्य दर्शन में पच्चीस तत्त्वों की गणना की गयी है। इसमें प्रकृति और उसके तेईस विकारों तथा पुरुष का समावेश है। ये पच्चीस तत्त्व ही सांख्य-शास्र के मुख्य प्रतिपाद्य विषय हैं, जिनका विभाजन त्रिविध रूपों में किया जाता है- व्यक्त, अव्यक्त तथा ज्ञ। महत् तत्त्व से लेकर पञ्चमहाभूत पर्यन्त सभी 'व्यक्त' हैं। 'अव्यक्त' को मूल प्रकृति या प्रधान कहते हैं। 'ज्ञ' चेतन है, इसे ही पुरुष कहते हैं। इसमें मूल प्रकृति केवल कारण है, कार्य नहीं। महत् अहङ्कार और पञ्चतन्मात्राएँ, ये सात तत्त्व कारण कार्य दोनों हैं। मनस,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org