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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में सांख्य का विकासवाद : २१
क्रियाशीलता सदैव विद्यमान रहती है; क्योंकि यदि प्रकृति की गति एक बार भी अवरुद्ध हो जाय तो उसका पुनः प्रारम्भ होना सम्भव नहीं है। प्रकृति में दो प्रकार का परिणाम होता है- सरूप परिणाम एवं विरूप परिणाम। प्रलयकाल में प्रकृति के तीनों गण स्वयं में परिवर्तित होते रहते हैं, इसे सरूप परिणाम कहते हैं। विरूप परिणाम का प्रारम्भ गुणों की साम्यावस्था भंग होने पर होता है, जिससे उद्विकास जन्म पाता है। फलत: प्रकृति से महत्, महत् से अहङ्कार, अहङ्कार से मन, पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्चकर्मेन्द्रियाँ और पञ्चतन्मात्र तथा पञ्चतन्मात्राओं से पञ्चमहाभूत की उत्पत्ति होती है।
प्रकृति से प्रथमत: महत् या बुद्धि तत्त्व की अभिव्यक्ति होती है। विश्व सृष्टि में महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के कारण तथा धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य आदि उत्कृष्ट गुणों का अधिष्ठान होने के कारण इसे महत् कहा जाता है। महत् का कार्य अध्यवसाय या निश्चय करना है, जो बुद्धि का लक्षण है, इसी कारण इस तत्त्व का दूसरा नाम बुद्धि है। महत् तत्त्व में यद्यपि तीनों गुण विद्यमान रहते हैं, किन्तु सत्त्व गुण की अधिकता के कारण इसे सत्त्व प्रधान कहते हैं। धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य-ये चार बुद्धि के सात्त्विक रूप हैं; अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य एवं अनैश्वर्य- ये चार बुद्धि के तामस् रूप हैं। महत्तत्त्व से अहङ्कार की उत्पत्ति होती है जो प्रकृति का दूसरा विकार है। अहङ्कार के सात्त्विक, राजस् एवं तामस् त्रिविध भेद हैं। सात्त्विक अहङ्कार से एकादश इन्द्रियों (मन, पञ्चज्ञानेन्द्रिय एवं पञ्चकर्मेन्द्रिय) की उत्पत्ति होती है। तामस् अहङ्कार से पञ्चतन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। राजस् अहङ्कार से किसी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती, यह सात्त्विक तथा तामस् अहङ्कारों को शक्ति प्रदान करता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के भेद से ये तन्मात्र पाँच प्रकार के होते हैं। इन पञ्चतन्मात्राओं से पञ्चमहाभूत की उत्पत्ति होती है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पञ्चमहाभूत हैं। गन्ध, रस रूप, स्पर्श और शब्द ये, इन पञ्चमहाभूतों के विशिष्ट गुण हैं, इन गुणों की भी उत्पत्ति पञ्चतन्मात्राओं से ही होती है। शान्त, घोर एवं मूढ़ धर्मों से युक्त होने के कारण ये पञ्चमहाभूत कहलाते हैं।६ बुद्धि, अहङ्कार, मन, पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ और पञ्चकर्मेन्द्रियाँ इन तेरह तत्त्वों को सांख्य दर्शन में त्रयोदशकरण कहा गया है। जिनमें बुद्धि, अहङ्कार एवं मन, अन्तःकरण तथा पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ और पञ्चकर्मेन्द्रियाँ दस बाह्यकरण नाम से जाने जाते हैं। बाह्यकरण किसी गृह के द्वार सदृश हैं जिनके माध्यम से बाह्य विषयों की सूचना अन्त:करण में पहुँचती है और अन्त:करण गृह के समान हैं जिनमें सभी सूचनाएँ आकर एकत्र होती
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