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________________ १८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६ वस्तुत: प्राचीन भारतीय ग्रन्थों की भाँति जैन आगमों में भी स्वतन्त्र विषय के रूप में अर्थशास्त्र निरूपित नहीं मिलता। प्रायः ग्रन्थकार धार्मिक और श्रमणआचार सम्बन्धी विषयों का विश्लेषण करते हुए प्रसंगवशात् कतिपय आर्थिक विचारों का भी उल्लेख कर देते हैं। जैन आगम-साहित्य ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से ईसा की पाँचवीं शताब्दी तक स्वरूप लेता रहा है। ___जैन ग्रन्थ निशीथचूर्णि में धनोपार्जन की प्रक्रिया को ‘उटुप्पत्ति' अर्थात् अर्थप्राप्ति कहा गया है। प्रश्नव्याकरण और वृहत्कल्पभाष्य में निरूपित है कि आजीविका अर्जन के लिए गृहस्थ 'अत्थसत्थ' का अध्ययन करते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के समान दशवैकालिक चूर्णि में भी अर्थोपार्जन के विविध प्रकारों (वार्ता-कृषि, पशुपालन, वाणिज्य) का उल्लेख मिलता है। सोमदेवसूरि ने बतलाया है कि अर्थ से सब प्रयोजन सिद्ध होते हैं। प्राचीन परम्परा के समान जैन आगम भी बतलाते हैं कि पृथ्वी का स्वामी राजा था। राज्य में राजकीय सम्पदा के अतिरिक्त वैयक्तिकः सम्पदा भी होती थी। उपासकदशांग के अनुसार आनन्द गाथापति ५०० हल का स्वामी था। आचारांग से ज्ञात होता है कि 'चारागाह' पर सामूहिक स्वामित्व था। इससे स्पष्ट है कि भूमि पर राज्य, व्यक्ति और सामूहिक तीनों ही तरह का स्वामित्व प्रचलित था। जैन आगम दशवैकालिक में वर्णित है कि सम्पत्ति के अर्जन, उपभोग, संरक्षण हेतु श्रमण उपासक स्वतन्त्र थे। सोमदेवसूरि के अनुसार हिंसा और शोषण रहित 'स्वश्रम' पर आधारित कृषि, पशुपालन, वाणिज्य (कुटीर और लघु उद्योग) के अतिरिक्त चक्रवर्ती राजाओं द्वारा अपनी सुख-सुविधा हेतु नवनिधियों को लगाने का भी वर्णन मिलता है। डॉ. नेमिचन्द्र जैन ने इन निधियों की तुलना आधुनिक उद्योगशालाओं से की है। जैन ग्रन्थ वृहत्कल्पभाष्य में वर्णित है कि 'उत्तरापथ' और 'दक्षिणापथ' के व्यापारी परस्पर वस्तुओं का आदान-प्रदान करते थे। 'ज्ञाताधर्मकथांग' के अनुसार भारत विदेशों में वस्तुओं का निर्यात करता था। उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि जैन आगमों की रचना काल में उद्योग-धन्धे विकसित थे। कृषि और उद्योग में अपेक्षित समन्वय विद्यमान था। वृहत्कल्पभाष्य के अनुसार राज्य भूमि की उपज का १/६ से १/१० अंश भाग के रूप में ग्रहण करता था। वस्तुतः जैन ग्रन्थों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि आगमों की रचनाकाल के समय आर्थिक स्वतन्त्रता थी। श्रमणोपासक व्यापारी न्याय और नीतिपूर्वक यथेच्छ धन अर्जित कर सकता था तथा राज्य की ओर से कोई प्रतिबन्ध नहीं था। लेकिन अंतिम तीर्थंकर महावीर के अनसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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