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श्वेताम्बर आगम और दिगम्बरत्व : १३
वस्त्र, दो वस्त्र, एक वस्त्र और अवस्त्र की मर्यादाएं रखी गई हैं, ठीक वही मर्यादाएं दिगम्बर परम्परा में क्षुल्लक, ऐलक, दिगम्बर मुनि के रूप में प्रस्थापित की गई हैं। आगे चलकर यह भेद यों बढ़ा कि श्वेताम्बर परम्परा सवस्त्र मुक्ति मानती है जबकि दिगम्बर परम्परा दिगम्बर होने के बिना मुक्ति की कल्पना भी नहीं करती। इसका कारण शायद स्री मुक्ति की संभावना पर टिका है। दोनों ही परम्पराएं स्त्री के लिए आवरण आवश्यक मानती हैं। अत: दिगम्बरत्व पर पूर्ण बल देने वाली परम्परा ने नारी मुक्ति का ही निषेध कर दिया जबकि श्वेताम्बर परम्परा ने सावरण स्री मुक्ति स्वीकार कर ली तो फिर सावरण पुरुष की मुक्ति भी स्वीकार करनी पड़ी। जान पड़ता है नारी मुक्ति को लेकर ही दोनों परम्पराएं एक दूसरे से बहुत दूर चलती गईं।
वस्तुत: जब से भारतीय संस्कृति आत्मोन्मुखी या कहिए परमात्मोन्मुखी हुई तब से ही श्रमण उसकी आध्यात्मिकता के प्रतीक बन गए। महावीर और बद्ध के जमाने में और उससे पहले भी दिगम्बरत्व श्रामण्य का प्रतीक बन चुका था। कई श्रमण नग्न विहार करते थे। मक्खलि गोशाल नंगा रहता था। पूर्णकस्सप ने भी वस्त्र धारण करना इसलिए स्वीकार नहीं किया कि दिगम्बर रहने से ही मेरी प्रतिष्ठा रहेगी।११ प्रसेनजित के कोषाध्यक्ष मृगांक के पुत्र पूर्ण वर्द्धन की स्री विशाखा ने कहा था कि भगवन् ! बरसात के दिनों में वस्रहीन भिक्षुओं को बड़ा कष्ट होता है इसलिए मैं चाहती हूं कि संघ को वस्त्र दान करूं।१२ यों देखा जाए तो हर धर्म में यह श्रमण परम्परा अंशाधिक रूप में पाई जाती है और भारत की श्रमण परम्परा में नवीनता नहीं है, विशेषता अवश्य है; यह विशेषता है त्याग की और यही विशेषता जैन धर्म में और भी विशिष्ट हो गई है; जब श्रमण गृहत्याग करके अनगार हो जाता है तो फिर उस अवस्था को अवश्य पहुंचेगा जब वस्त्र उसकी सिद्धि में बाधक लगने लगेगा।
यही कारण है कि जैन धर्म के श्वेताम्बर आगम भी दिगम्बरत्व की विशेषता को अनदेखा नहीं कर सके और उसे कल्प का सर्व प्रथम रूप मानकर उसके बारे में लिखा।
इस लेख के माध्यम से श्वेताम्बर समाज के उस वर्ग को प्रोत्साहित करना है जो दिगम्बरत्व के प्रति आदर भाव तथा समभाव रखने के अपने आगम आदेश को पूर्ण सम्मान देकर उसका पालन करें।
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