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१२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६
कल्पसूत्र के नवें क्षण में जिनकल्पी व स्थविर कल्पी दोनों साधुओं के . .. चारित्र के नियम दिए हैं।
कल्पसूत्र की विनयविजय गणि द्वारा कृत सुबोधिका वृत्ति का प्रारम्भ करते हुए लिखा गया है कि कल्प का अर्थ साधुओं का आचार है। उसके दस भेद हैं- (१) आचेलक्कु, (२) द्देसिअ, (३) सिज्जायर, (४) रायपिंड, (५) किइकमो, (६) वय, (७) जिट्ठ, (८) पडिक्कमणे, (९) मासं, (१०) पज्जासवणकप्पे।
इनमें से अचेलक की व्याख्या करते हुए लिखा है कि 'न विद्यते चेलं यस्य स अचेलकस्तस्य भावं आचेलक्यं विगतवस्रत्वं इत्यर्थः तच्च तीर्थेश्वरानाश्रित्य प्रथमांतिमे जिनयोः शक्रोपनीत देवदूष्यापगर्म सर्वदा अचेलकत्वं
अन्येषां तु सर्वदा सचेलकत्वं । किन्तु इसी ग्रंथ कल्पसूत्र की किरणावली टीका में यह लिखा है कि २४तीर्थंकरों के शक्रोपनीत देवदूष्य के अपगम पर अचेलकत्व हो जाता है। विजयगणि ने इसको समझाते हुए लिखा कि अजितनाथ से लेकर २२ तीर्थंकरों के साधु समाज "बहुमूल्य विविध वर्ण वस्र परिभोगानुज्ञा .. सद्भावेन सचेलकत्वं मेव केषांचिच्च श्वेतमानो पेत वस्त्र धारित्वेन अचेलकत्वं अपि इति अनियत: तेषां अयं कल्पः श्री ऋषभवीर तीर्थ यतीनां च सर्वेणां अपि श्वेतमानो पेत जीर्ण प्रायवस्र धारित्वेन अचेलकत्वं।"
वस्र परिभोग होने पर अचेलक कैसे होगा? इस शंका का निराकरण यों कर दिया कि जीर्णप्राय तुच्छ वस्र के होने पर भी 'अवस्त्रत्वं' ऐसा जगत् प्रसिद्ध है। जैसे लंगोटी लगाकर नदी पार करने पर भी कहते हैं कि नग्न होकर नदी पार की तथा दर्जी या धोबी से वस्र जल्दी लेने के लिए कहते हैं कि भाई, जल्दी दो हम तो नंगे हो रहे हैं- उसी प्रकार साधुओं के वस्र होते हुए भी अचेलकत्व जानना चाहिए।
उपरोक्त अवतरणों से स्पष्ट है कि श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भी भगवान महावीर उस समय दिगम्बर थे जब उन्हें केवल ज्ञान हुआ और मुक्ति प्राप्त की। इन्हीं को ध्यान में रखकर पं० सुखलाल जी संघवी ने१० लिखा कि भगवान् महावीर ने अपने शासन में दोनों दलों का स्थान निश्चित किया जो बिल्कुल नग्नजीवी व उत्कट विहारी थे और जो बिलकुल नग्न नहीं थे, ऐसा मध्यममार्ग था। उन दोनों दलों के आचारों के विषय में मतभेद रहा।
विचार करने से जान पड़ता है कि जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में तीन
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