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________________ श्वेताम्बर आगम और दिगम्बरत्व : ११ किया तत्पश्चाद् इंद्र ने उनके वाम स्कंध पर एक देवदूष्य रखा जिसे लेकर अगार से अनगार हो गए, सामायिक में बैठे और उन्हें चतुर्थ ज्ञान हो गयाकुछ समय पश्चात् कोल्लाक सन्निवेश में बहुल ब्राह्मण गृह में यह कहकर कि मेरे द्वारा सपात्र धर्म प्रज्ञापनीय है, गृहस्थ के पात्र में प्रथम पारणा किया तब पंच दिव्य प्रादुर्भूत हुए (१) चेलोक्षेप, (२) गंधोदकवृष्टि, ९३) दुन्दुभिनाद, (४) अहोदानं अहोदानं ऐसी उद्घोषणा और (५) वसुधारावृष्टि। तदनंतर अस्थिक ग्राम में पांच अभिग्रह धारण किए- (१) नाप्रीतिमद्गृहेवासः, (२) स्थेयं प्रतिमया सदा, (३) न गेहिविनय: कार्यः, (४) मौनं, (५) पाणौ च भोजनम् । वार्षिक दानावसर पर कोई दरिद्र परदेश गया हुआ था, लेकिन दुर्भाग्य से कुछ भी कमा कर नहीं ला सका तो उसकी भार्या ने उसे झिड़का, अरे अभाग्य शेखर! जब वर्धमान मेघ की तरह स्वर्ण बरसा रहे थे तब तू विदेश चला गया और फिर निर्धन ही समागत हुआ। दूर हट, मुंह न दिखा, अब भी तू जंगम कल्पतरु से भीख मांग, वही तेरा दारिद्र हरेगा-इस प्रकार पत्नी के ऐसे वाक्यों से प्रेरित होकर वह भगवान के पास पहुंचा और प्रार्थना की प्रभु आप जगदुपकारी ने विश्व भर का दारिद्र्य निर्मूल कर दिया किन्तु दुर्भाग्य से उस समय मैं यहाँ नहीं था, भ्रमण करते हुए भी मुझे कुछ मिला नहीं, निष्पुण्य, निराश्रय, निर्धन मैं, आप जगद्वांछित दायक की शरण में आया हूं। विश्व दारिद्र्य को हरने वाले आपके लिए मेरी दरिद्रता कितनी सी है। इस प्रकार याचना करने वाले विप्र के प्रति करुणापरण भगवान् ने आधा करके देवदूष्य दे दिया। विप्र उसे ले गया और दशांचल के लिए तन्तवाय को दिखाया और सारा व्यतिकर सुनाया तो वह बोला, हे ब्राह्मण, तू उन्हीं प्रभु के पीछे जा वे निर्मम करुणाम्बोधि द्वितीय अर्ध भाग को भी दे देंगे तब मैं दोनों आधे-आधे टुकड़ों को जोड़ दूंगा। इस प्रकार अक्षत होने पर इस का मूल्य एक लाख दीनार हो जाएगा। तब हम उस रकम को आधा-२ बांट लेंगे और हम दोनों का दारिद्र्य दूर हो जाएगा। तब वह पुनः प्रभु के पार्श्व में आया किन्तु लज्जा के कारण कुछ कहने में असमर्थ साल भर तक उनके पीछे-पीछे घूमता रहा। १३ महीने के बाद घूमते हुए भगवान् जब दक्षिण वाचालपुर के पास सुवर्णवालुका नदी तट पर आए तो कंटकों से उलझकर आधा देवदूष्य भी गिर गया। तब पिता के मित्र उस ब्राह्मण ने उसे उठा लिया और चल दिया। अत: भगवान ने सवस्त्र धर्म प्ररूपण के लिए मासाधिक एक वर्ष तक वस्त्र को स्वीकार किया, सपात्र धर्म की स्थापना के लिए प्रथम पारणा में पात्र का उपयोग किया, उसके बाद जीवन भर अचेलक पाणि पात्र रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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