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________________ १० : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६ दिगम्बरत्व संपूर्ण जैन शासन का एक विशिष्ट अंग रहा है किन्तु वस्रधारी श्रमणों ने अपना पक्ष सबल करने के लिए अचेलक शब्द का अर्थ ही अल्पवस्र कर डाला। जान पड़ता है यहीं से श्वेताम्बर परम्परा में दिगम्बरत्व के विरोध की नींव डाल दी गई। (५) ठाणं में उल्लेख इस प्रकार है - से जहाणामए अज्जो। मए समणाणं णिग्गंथाणं णग्गभावे मुण्डभावे अण्हाणए अदंतवणए, अच्छतए, अणुवाहणए भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कट्ठसेज्जा केसलोए वंभरवासे परघर पवेसे लद्धा वलद्ध वित्तीओ पण्णत्ताओ। यह नग्न निग्रंथों के आचार का स्पष्ट ही उल्लेख है। __(६) कल्पसूत्र में भगवान महावीर की दीक्षा का वर्णन करते हुए बताया है कि उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ, अहे सीयं ठावित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, सीयाओ पच्चोरुहित्ता सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमयति, ओमइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करित्ता छठेणं भत्तेण अपाणएणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवा-गएणं एगं देवदूसमादाय एगे अबीए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। समणे भगवं महावीरे संवंच्छरं साहियं मासं चीवरधारी होत्था तेण परं अचेलए पाणिपडिग्गहिए। ज्ञातृ खण्डवन पहुंच कर अशोक वृक्ष के नीचे शिविका रखी गई, शिविका रखे जाने पर भगवान शिविका से उतरे, शिविका से उतर कर स्वयं आभरण, माला, अलंकार उतारे तथा उनके उतारने के बाद स्वयं पंचमुष्टि केश लोचन किया और पानी रहित छट्ठभक्त अर्थात् दो उपवास किए। हस्तोत्तरा नक्षत्र का योग आने पर एक देवदूष्य को लेकर एकाकी हो मुंडित होकर, गृह त्याग कर अनगारत्व को स्वीकार किया। श्रमण भगवान महावीर तेरह महीने तक चीवरधारी रहे उसके बाद अचेलक तथा करपात्री हो गए। इस पर विनयगणि की टीका का सार इस प्रकार है कि जब भगवान ने देवों द्वारा लाई गई शिविका से ज्ञातृ खण्डवन उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे उतरकर स्वयमेव आभरण माल्यालंकार उतार दिए और पंचमुष्टि केश लोचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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