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श्वेताम्बर आगम और दिगम्बरत्व : ९ एग कज्जपवण्णाणं, विसेसे किं नु कारणं । धम्मे दुविहे मेहावि कहं विप्पच्चओ न ते! ।।२८।। अचेलओ अ जो धम्मो जो इयो संतरुत्तरो । देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महामुणी ।।२९।। एगकज्जपवण्णाणं, विसेसे किं नु कारणं।
लिंगे दुविहे मेहावी! कहं विपच्चओ न ते? ।।३०।। हे मेधावी, एक कार्य प्रपन्न होते हुए भी धर्माचरण दो प्रकार का तथा लिंग भी दो प्रकार का अचेलक व सांतरोत्तर ऐसा क्यों? क्या इस विषय में आपको शंका नहीं होती?
गौतम का उत्तर था कि हे महामुनि! समय का विज्ञान पूर्वक सूक्ष्म निरीक्षण कर तथा साधुओं के मानस को देखकर इस प्रकार भिन्न-भिन्न धर्म साधन रखने का विधान किया गया है, जैन साधुओं की पहचान के लिए ये नियम बनाए गए हैं, अन्यथा मोक्ष के साधन तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र हैं।
इस संवाद से यह स्पष्ट है कि गौतम स्वामी अचेलक नग्न थे और केशी मुनि सचेल,आगे चलकर इस विषय पर यों वृत्ति की गई कि सामान्य रीति से नञ् समास का अर्थ नकारवाची अर्थात् अचेलक का अर्थ वस्त्ररहित-अवस्र ऐसा किया जा सकता है। किन्तु महावीर ने वस्त्र की अपेक्षा वस्त्रजन्य मूर्छा को दूर करने पर विशेष जोर दिया इसलिए नञ् समास के छह अर्थों में से ईषत् (अल्प) यह अर्थ ही उचित है, परन्तु यदि ऐसा होता तो केशी मुनि कोई संशय न करते। इसके इलावा अचेलक का अर्थ ईषत् चेल मान लिया जाए तो फिर अहिंसा महाव्रत का अर्थ अल्प हिंसा, असत्यत्याग महाव्रत का अर्थ अल्प सत्य और अस्तेय का अर्थ अल्प स्तेय करना पड़ेगा। यदि अल्प वस्त्र और अधिक वस्त्र की ही समस्या होती तो केशी मुनि वस्रों की संख्या के बारे में ही प्रश्न करते, इस कठिनाई को पहचानकर नेमिचन्द्राचार्य ने यह टीका की कि अचेलक धर्म वर्द्धमान स्वामी ने चलाया था, कारण यह कि पार्श्वनाथ ने तो वस्त्र पहनने की अनुज्ञा दी थी किन्तु इसका अर्थ रंगीन वस्र का निषेध न होने के कारण भिक्षुओं ने रंगीन वस्त्र पहनना प्रारम्भ कर दिया। यह देखकर महावीर भगवान ने वस्त्र का ही निषेध कर दिया।
इस संवाद और टीका के अध्ययन से यह परिणाम निकलता है कि
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