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८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६ समादर का वर्णन ही नहीं है उनके आचरण के नियम भी बताए गए हैं। (४) उत्तराध्ययन सूत्र में भिक्षु के लिए लिखा है कि
एगयाचेलए होइ, सचेले यावि एगया ।
एयं धम्महियं नच्चा नाणी णो परिदेवए ।। अर्थात् कभी अचेलक होने पर तथा कभी सचेल होने पर दोनों ही अवस्थाएं धर्म हित के लिए हैं, ऐसा जानकर ज्ञानी खेद न करे।
अचेलगस्स लूहस्स संजयस्स तवस्सिणो । तणेसु सयमाणस्स हुज्जा गायविग्रहणा ।। आयवस्स निवाएणं, अतुला हवइ वेयणा ।
एयं णच्चा न सेवंति, तंतुजं तणतज्जिया ।। जब अचेलक संयमी तपस्वी रुक्ष तृण शय्या पर सोता है तो उसके गात्र को विराधना (क्षति) होगी तथा आतप होने पर अतुल वेदना होगी, इस प्रकार तृणकदर्थित होने पर भी भिक्षु तन्तुज (वस्रादि) को धारण नहीं करेगा।
उत्तराध्ययन सूत्र के ही २३वें अध्ययन में केशी गौतम का परिसंवाद विस्तार से लिखा है जो इस प्रकार है
केशी पार्श्वनाथ के शासन के शिष्य थे और गौतम महावीर के शिष्य थे। दोनों का एक समय श्रावस्ती नगरी में अपने-अपने शिष्य समुदाय के साथ निवास हआ-दोनों ही अचित्त घास की शैय्या पर, केशी तिन्दुक नामक उद्यान में तथा गौतम कोष्टक नामक उद्यान में ठहरे थे- एक दिन भिक्षा के निमित्त उनके शिष्य निकले और आमना-सामना हआ तो एक ही ध्येय होने तथा एक ही धर्म के उपासक होने पर भी एक दूसरे के वेश तथा साधु क्रियाओं में अन्तर दिखाई देने से एक दूसरे के प्रति संदेह उत्पन्न हुआ
अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो।
एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं ।। (अचेलकश्च यो धर्मों, यो सांतराणि एक कार्य प्रपन्नौ विशेष किं नु कारणं)
यह बात जब श्रमण गौतम तक पहुंची तो वे स्वयं केशी मुनि के उद्यान में गए। केशी मुनि ने पूछा
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