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________________ श्वेताम्बर आगम और दिगम्बरत्व : ७ आदेश है कि उसे सहन करो। ऐसा मुनि जो अचेल है, धर्म को जानता है, आचरण और संयम से रहता है उसको ऐसा विचार नहीं होता कि मेरे वस्र परिजीर्ण हैं, नए के लिए याचना करूँगा, डोरे के लिए याचना करूंगा, सुई के लिए याचना करूंगा, उनको सी लूंगा, उनको सुधार लूंगा, पहन लूंगा या ओढ़ लूंगा। इस प्रकार का अचेलक जो तप में पराक्रम दिखाता है उसे अक्सर घास चुभेगी, शीत-उष्ण, दंश-मशक परेशान करेंगे, वह अपनी इच्छाओं व कर्मों का दमन करता है, वही तप करने के योग्य है- ऐसा भगवान ने कहा है यह समझकर सम्यक्त्व को धारण करता है। जे अचेले परिवुसिते, तस्स णं भिक्खुस्स णो एवं भवइ-चाएमि अहं तण फासं अहियासित्तए, सीयफासं अहियासित्तए, तेउफासं अहियासित्तए, दंसमसगफासं अहियासित्तए, एगतरे अण्णतरे वरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हरिपडिच्छादणं चहं णो संचाएमि, अहिया-सित्तए, एवं कथति से कडि वंधणं धारित्तए। अदुवा तत्थपरक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सीय फासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंसमसगफासा फुसंति, एगयरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले। लाघवियं आगममाणे। तवे से अभिसमन्नागए भवति जमेयं भगवता- पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। जो भिक्षु अचेल रहता है उसे नहीं सोचना चाहिए कि मैं तृण, सर्दी, गर्मी, दंशमशक या अन्यतर विविध प्रकार के परीषह सहन कर सकता हूं किन्तु मैं गुप्तांगों के आवरण को नहीं छोड़ सकता, यदि ऐसा हो तो वह कटिबंधन धारण कर सकता है। यदि अचेल भिक्षु अपने चरित्र में दृढ़ रहता है और तृण, शीत, उष्ण, दंशमशक या अन्य विविध प्रकार के परीषहों को सहन करता है तो वह लाघवता को प्राप्त करता है। इसको भी भगवान ने तप कहा है और सर्वदा सर्वकाल समभाव रखे। इसे जिनकल्पी साधुओं का आचरण बताया गया। इतना स्पष्ट उल्लेख होते हुए भी 'अचेल' शब्द का अर्थ अल्प वस्त्र किया गया। अब तक के परिशीलन से जाहिर है कि श्वेताम्बर आगमों में वस्ररहित साधु के अस्तित्व व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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