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________________ १२८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६ व्रत धारण करने के पूर्व ब्रह्मचर्य व्रत-विधि, क्षुल्लक दीक्षा-विधि आदि को स्थान । नहीं दिया गया है। ये दोनों विधियाँ दिगम्बर परम्परा में तो आज भी प्रचलित - हैं किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में तो इनका सर्वथा अभाव है। इसी प्रकार के अन्य संस्कारों की विधियों का विस्तृत व समुचित वर्णन प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है जो स्थिरकल्पी व जिनकल्पी- दोनों ही प्रकार के मुनियों में प्रचलित है। इस दृष्टि से वर्धमान सूरि कृत 'आचार दिनकर' में क्षुल्लक दीक्षा-विधि और जिनकल्पी दीक्षा-विधि इन दोनों का एक साथ उल्लेख करना ग्रन्थ की अद्वियता का सूचक है। साथ ही यह भी सिद्ध करता है कि सूरि जी अपने इस ग्रन्थ को केवल श्वेताम्बर या दिगम्बर सम्प्रदायों तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे अपितु उसे समस्त जैन परम्परा के लिये विधि-विधान सम्बन्धित एक सम्पूर्ण ग्रन्थ बनाना चाहते थे। उनका यह ग्रन्थ गृहस्थों और मुनियों दोनों के लिये आवश्यक रूप से अनुकरणीय है। ग्रन्थ की दूसरी विशेषता है कि इसमें योगोद्वहन, वाचनाग्रहण, वाचनानुज्ञा, इन तीनों विधियों का अलग-अलग वर्णन किया गया है। इन विधियों में कालग्रहण (स्वाध्याय हेतु समय का निर्धारण) तथा संघट्टा (किन वस्तुओं का स्पर्श करना है किसका नहीं करना है) का विशेष रूप से इसमें वर्णन किया गया है। क्योंकि इन्हीं नियमों के आधार पर कालान्तर में आचार्य और उपाध्याय पद प्रदान किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में वर्धमान सूरि ने श्रमण व श्रमणी संघ की विशेष चर्चा करते हुए इन संघों में क्रमश: उपध्याय-आचार्य तथा प्रवर्तिनी-महत्तरा पदों के कर्त्तव्य व पदस्थापन की विधि तथा उसमें अन्तर को बताते हुए श्रमण संघ के अन्तर्गत होने पर श्रमणी संघ की स्वतन्त्र व्यवस्था को स्वीकार किया है। इस ग्रन्थ में ऋतुचर्या पर भी विशेष प्रकाश डाला गया है। यद्यपि ऋत चर्या जैन मुनियों का एक आवश्यक और सार्वभौम विधान रहा है। इन छहों ऋतुओं में से प्रत्येक ऋतु में दिन और रात्रि में किस प्रकार का आचार पालन अपेक्षित है तथा क्या सावधानी रखनी चाहिए, इसकी भी विस्तृत व्याख्या की गयी है। यद्यपि मृतक के अग्नि संस्कार का विधान हिन्दू धर्म में तो प्रचलित है किन्तु जैन मुनियों के सन्दर्भ में इस प्रकार के विधान का उल्लेख ग्रन्थों में नहीं मिलता है। किन्तु सूरि जी ने उन्हीं प्राचीन ग्रन्थों का उल्लेख करते हुए मुनि के मृतक देह का अग्नि संस्कार क्यों और कैसे किया जाना चाहिए, इसपर भी प्रकाश डाला है। ग्रन्थ की इन सभी विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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