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: श्रमण, वर्ष ५७, अंक १ / जनवरी-मार्च २००६
वैदिक या ब्राह्मण-परम्परा के संस्कृत - कथा - साहित्य की विविधता और विपुलता ने जिस प्रकार अपने युग का निर्माण किया है, उसी प्रकार श्रमणपरम्परा में प्राकृत-कथावाङ्मय की विशालता से एक युग की स्थापना हुई है। श्रमण परम्परा और ब्राह्मण- परम्परा- दोनों समान्तर गति से प्रवाहित होती आ रही हैं। दोनों के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं है। यह बात दूसरी है कि कोई परम्परा काल- धर्म के कारण क्षीणप्रभ और तेजोदीप्त होती रही। कोई भी परम्परा अपने सारस्वत और सांस्कृतिक वैभव से ही दीर्घायु होती है। ब्राह्मण- परम्परा अपने साहित्यिक उत्कर्ष, सांस्कृतिक समृद्धि, दार्शनिक दीप्ति और भाषिक ऋद्धि से शाश्वत बनी हुई है, उसी प्रकार श्रमण परम्परा की जैन और बौद्ध- ये दोनों शाखाएँ भी अपनी महामहिम साहित्यिक-सांस्कृतिक- दार्शनिक- भाषिक विभूति से ही युग-युग का जीवनकल्प हो गई हैं।
कोई भी परम्परा या सम्प्रदाय यदि सामाजिक गति को केवल तथाकथित धार्मिक नियति से संयोजित करने की चेष्टा करता है, तो वह पल्लवित होने की अपेक्षा संकीर्ण और स्थायी होने की अपेक्षा अस्थायी हो जाता है | श्रमण परम्परा की स्थायिता का मूलकारण धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उसकी क्रान्तिकारी वैचारिक उदारता है। श्रमण परम्परा की प्राकृत-कथाओं में उदारदृष्टिवादी संस्कृति, धर्म और दर्शन की समन्वित त्रिवेणी प्रवाहित हुई है, अतएव इसी परिप्रेक्ष्य में प्राकृत-कथाओं का मूल्यांकन न्यायोचित होगा। आगम-परवर्ती प्राकृत - कथासाहित्य की सबसे बड़ी उपलब्ध यही नहीं है कि प्राकृत कथाकारों ने लोक- प्रचलित कथाओं को धार्मिक परिवेश प्रदान किया या श्रेष्ठ कथाओं की सर्जना केवल धर्म प्रचार के निमित्त की है। प्राकृत-कथाओं का प्रधान उद्देश्य केवल सिद्धान्त - विशेष की स्थापना करना भी नहीं है । वरंच, सिद्धान्त- विशेष की स्थापना और धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश के प्रस्तवन के साथ ही अपने समय के सम्पूर्ण राष्ट्रधर्म या युगधर्म का प्रतिबिम्बन भी प्राकृत-कथा का प्रमुख प्रतिपाद्य है, जिसमें भावों की रसपेशलता, सौन्दर्य चेतना, सांस्कृतिक आग्रह और निर्दुष्ट मनोरंजन के तथ्य भी स्वभावतः समाहत हो गये हैं । कहना यह चाहिए कि प्राकृत-कथाकारों ने अपनी कथाओं में धर्म-साधना या दार्शनिक सिद्धान्तों की विवेचना को साम्प्रदायिक आवेश से आवृत्त करने के आग्रही होते हुए भी संरचना - शिल्प, भाव- सौन्दर्य, पदशय्या, भणिति - भंगी, बिम्बविधान, प्रतीक - रमणीयता, सांस्कृतिक विनियोग आदि की दृष्टि से अपने कथाकार के व्यक्तित्व को खण्डित नहीं होने दिया । यद्यपि इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि किसी कथाकार या रचनाकार के
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