________________
श्रमण, वर्ष ५७, अंक १ जनवरी-मार्च २००६
विद्यापीठ के प्राङ्गण में
पार्श्वनाथ विद्यापीठ में त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न
वैदिक एवं श्रमण परम्पराओं में परस्पर आदान-प्रदान
विषय पर त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी
(दिनांक - २६ - २८ फरवरी, २००६) भारतीय संस्कृति वैदिक एवं श्रमण परम्पराओं का समन्वित रूप है। दोनों ही परम्परायें प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में प्रवाहित होती आ रही हैं। अतः स्वाभाविक है कि दोनों ने एक दूसरे को प्रभावित किया होगा। दोनों ने एक-दूसरे को कहाँ, कब और कैसे एक-दूसरे को प्रभावित किया है, इसी उद्देश्य को परिलक्षित करते हुए पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी और महर्षि सान्दीपनि वेदविद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन के संयुक्त तत्वावधान में दिनांक २६ से २८ फरवरी २००६ तक "वैदिक एवं श्रमण परम्पराओं में परस्पर आदान-प्रदान" विषय पर एक त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया।
- संगोष्ठी का प्रारम्भ वैदिक एवं श्रमण परम्परा के मंगलाचरण से हुआ। वैदिक मंगलाचरण डॉ० पतञ्जलि शास्त्री तथा जैन मंगलाचरण स्थानकवासी जैन मुनि परमपूज्य श्री राममुनि जी ने किया। परम्परा के अनुसार दीप प्रज्ज्वलन तत्पश्चात् अतिथियों का स्वागत सम्मान, अंगवस्त्रं एवं प्रतीक चिह्न प्रदान कर किया गया। तत्पश्चात् प्रो० महेश्वरी प्रसाद, निदेशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ और डॉ० अमलधारी सिंह, कार्य अधिकारी, महर्षि सान्दीपनि वेदविद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन ने अपनी-अपनी संस्थाओं का परिचय दिया।
पश्चात् मुख्य अतिथि, सारस्वत अतिथि द्वारा विद्या की देवी सरस्वती तथा श्रमण भगवान महावीर के चित्रों पर माल्यार्पण का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। पार्श्वनाथ विद्यापीठ का परिचय एवं विषय प्रवर्तन संस्थान के निदेशक प्रो० महेश्वरी प्रसाद ने किया। उन्होंने कहा कि बौद्ध एवं जैन दोनों धर्मों की मान्यता है कि कोई जन्मना ब्राह्मण नहीं होता, ब्राह्मण तो कर्म से ही होते हैं। प्रो० प्रसाद ने कहा कि यूरोप में मार्टिन लूथर के सुधारवाद के पहले ही भारत में लोकाशाह ने जैन धर्म में सुधार की अलख जगाई। उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि प्रो० पंजाब सिंह,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org