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________________ १०४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १ / जनवरी-मार्च २००६ है। इस अभिलेख में ब्रह्मा, श्रीधर (विष्णु) एवं शंकर की स्तुति की गई है जो रागों से परे हैं और संसार में जिन के नाम से प्रसिद्ध हैं। "श्रीयै भवन्तु वो देवा, ब्रह्मश्रीधरशंकरः सदा विरागवन्तो, ये जिना जगति विश्रुताः "२६ अतः हम देखते हैं कि जैन परम्परा ने वैदिक परम्परा के उन श्रेष्ठ मूल्यों को आत्मसात करने का प्रशंसनीय प्रयास किया जो उनके मान्य सिद्धान्त के अनुकूल थे। वैदिक परम्परा ने भी इसका समुचित उत्तर दिया । प्रायः सभी हिन्दू राजवंशों ने प्रफुल्ल मन से जैन धर्म के विकास में अपना योगदान दिया जो उनके अभिलेखों से स्वतः द्योतित होता है । सन्दर्भ : १. सूत्रकृतांग, १/३/४/१ ( श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, राज० १९८२ ई ० ) | २. अभुंजिया णमी वेदेही, रामउत्ते य भुंजिया । बाहु उदगं भोच्चा, तहा तारायणे रिसी ।। आसिले देविले चेव, दीवायण महारिसी । पारासरे दगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि य ।। एते पुव्वं महापुरिसा आहिता इह संमता । भोच्चा बीओदगं सिद्धा इति मेतमणुस्सुतं ॥ वही, १ / ३ /४/२-४ ३. औपपातिक सूत्र, ७६, पृ० १२९ ( श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, राज० १९८२) ४. वही। ५. ते णं परिव्वाया रिउव्वेद - यजुव्वेद - सामवेद अहव्वणवेद - इतिहासपंचमाणं, निघण्टुछट्ठाणं, संगोवंगाणं सरहस्साणं चउण्हं वेदाणं सारगा पारंगा धारगा, संडगवी, सट्ठितंत्त-विसारया, संखाणे सिक्खाकप्पे, वागरणे, छंदे, निरत्ते, जोइसामयणे, अण्णेसु य बहूसु बंभण्णएसु य सत्थेसु परिव्वाएसु य नए सुपरिणिट्ठिया यावि होत्था । वही, ७७, पृ० १३१| ६. ऋषिभाषित, नारद अध्ययन, पृ० १ । Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525057
Book TitleSramana 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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