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१०२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
जैन परम्परा में श्रेष्ठ विचारों के आत्मसातीकरण की यह प्रक्रिया केवल व्यक्तियों अर्थात् ऋषियों तक ही सीमित न थी, अपितु पूरे के पूरे कथानक को अपनी परम्परा में ढालने का प्रशंसनीय प्रयास किया गया। यह प्रवृत्ति इतनी प्रबल थी कि पूरा का पूरा श्लोक यथावत उद्धृत कर दिया गया। केवल एक उदाहरण के माध्यम से इस तथ्य को बखूबी समझा जा सकता है। जैन परम्परा के मूलग्रन्थ उत्तराध्ययन के इसुकारी अध्ययन में एक पुत्र अपने पिता से संन्यास मार्ग का अनुसरण करने के लिए आज्ञा माँगता है। कथानक के अन्त में कुछ वाद-विवाद के उपरान्त पुत्र न केवल स्वयं प्रव्रजित होता है अपितु पिता-माता को भी प्रव्रजित करा देता है। ठीक यही कथानक महाभारत के शन्तिपर्व में है। दोनों में भाव एवं भाषा की समानता देखते ही बनती है। पुत्र द्वारा आज्ञा माँगने पर पिता उसे सर्वप्रथम वेदाध्ययन करने, पुत्र पैदा करने, फिर वानप्रस्थ में प्रवेश करने, तदुपरान्त मुनि अर्थात संन्यासी बनने का उपदेश देता है। अधीत्य वेदान ब्रह्मचर्येसु पुत्र, पुत्रानिच्छेत पावनाय पितृणाम। अग्नीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो, वनं प्रविश्याथ मुनिळूभूषेत्।।महाभारत अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे, पुत्ते पडिपप्प गिहंसि जाया। भोच्चाण भोए सह इत्थियाहिं, आरण्णगा होह मुणी पसत्था।।उत्तराध्ययन
आगे कथानक में पुत्र अपने पिता से कहता है यह लोक किसी के द्वारा ताड़ित एवं आहत है तथा अमोघा वस्तुएँ हम पर टूट पड़ रही हैं।
एवमभ्याहते लोके सर्वतः परिवारिते। अमोघासु पतन्तीसु किं धीरं इव भाषसे ।। महाभारत१९ अब्भामि लोगंमि सव्वओ परिवारिए ।
अमोहाहिं पडन्तीहिं गिहंसि न रइं लभे ।।उत्तराध्ययन२० पुन: पिता यह प्रश्न करता है कि यह लोक कैसे ताड़ित है तथा किससे घिरा हुआ है तथा कौन सी अमोघ वस्तुएँ हम पर टूट पड़ रही हैं। पुत्र पिता को समझाते हुए कहता है कि यह लोक मृत्यु से आहत है, जरा से घिरा हुआ है। दिन और रात्रियाँ (समय चक्र की गति) हम पर टूट पड़ रही हैं।
कथमभ्याहतो लोकः केन वा परिवारितः । अमोघाः का पतन्तीहि किं नु भीषयसीवमाम ।। , मृत्युनाभ्याहतो लोको जरया परिवारितः । अहोरात्राः पतन्ती में तच्च कस्मान्नबुद्धयसे ।।महाभारत२१
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