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वैदिक ऋषियों का जैन परम्परा में आत्मसातीकरण : १०१
"जाव ताव लोएसणा ताव ताव वित्तेसणा, जाव ताव वित्तेसणा, ताव ताव लोएसणा। से लोएसणं च वित्तेसणं च परिन्नाए गोपहेणं गच्छेज्जा, णो महापहेणं गच्छेज्जा।"१३
“एतं वै तमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्याचरन्ति या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा सा लोकैषणोभे ह्येते एषणे एव भवतः।१४
अर्थात् जब तक लोकैषणा है तब तक वित्तैषणा है, जब तक वित्तैषणा है तब तक लोकैषणा है, अत: साधक को वित्तैषणा एवं लोकैषणा का परित्याग करके गोपथ से जाना चाहिए, महापथ से नहीं। सम्भवत: यहाँ गोपथ से तात्पर्य है कि जिस प्रकार गाय थोड़ी-थोड़ी घास चरते हुए जीवन जीती है, उसी प्रकार से व्यक्ति को भिक्षाचर्या द्वारा किसी को कष्ट न देते हुए जीवन जीना चाहिए। यहाँ महापथ का तात्पर्य जैसा कि प्रो० सागरमल जैन ने बताया है, लोकपरम्परा से है।१५ उपनिषदों में भी श्रेय और प्रेय की चर्चा है। श्रेय मार्ग से ही जाने का उपदेश दिया गया है प्रेय मार्ग से नहीं। यहाँ हम याज्ञवल्क्य के उन्हीं सिद्धान्तों की चर्चा पाते हैं जो जैन धर्म के अनुकूल हैं। आत्मा की शाश्वतता सम्बन्धी याज्ञवल्क्य के सिद्धान्त के सम्बन्ध में यहाँ हम एक शब्द भी नहीं पाते।
___ ऋषिभाषित के १७वें अध्याय में विदुर की चर्चा है। महाभारत में इन्हें । व्यास के द्वारा अम्बिका की दासी से उत्पन्न बताया गया है। महाभारत के स्त्री पर्व में इनके उपदेशों का विस्तार से वर्णन मिलता है। महाभारत एवं ऋषिभाषित में उल्लिखित इन सन्दर्भो को मिलाने पर दोनों में आश्चर्यजनक समानता प्रकट होती है। विदुर के उपदेशों का सार यह है कि जिस प्रकार रोग के निवारण के लिए रोग का परिज्ञान, उसके सम्यक् निदान का परिज्ञान एवं औषधि का ज्ञान आवश्यक है उसी प्रकार मुक्ति के लिए ज्ञान आवश्यक है तथा साथ ही स्वाध्याय एवं ध्यान भी। ऋषिभाषित में विदुर के उपदेश का प्रारम्भ उस विद्या की प्रशंसा से हुआ है जिसे महाविद्या कहा गया है और जो सभी दुःखों से मुक्त करती है।
"इमा विज्जा महाविज्जा, सव्वविज्जाण उत्तमा। जं विज्जं साहइत्ताणं, सव्वदुक्खाण मुच्चती।।"१६
यह सन्दर्भ हमें उपनिषदों के उस महावाक्य का स्मरण दिलाता है जहाँ विद्या को मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है -
"सा विद्या या विमुक्तए"
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