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________________ निर्ग्रन्थ-संघ और श्रमण परम्परा : ३ एवं बुद्ध से पहले इस धर्म के अनुयायी थे। इस बात से सिद्ध होता है कि महावीर से पूर्व निर्ग्रन्थों की कोई परम्परा अवश्य थी, जिसका अनुयायी शाक्यवंशीय, परिवार था और वह पार्श्वनाथ की ही परम्परा प्रतीत होती है। पालि-साहित्य में 'बप्प' के अतिरिक्त उपालि, अभय, अग्निवेश्यायन आदि और भी कई नाम हैं, जो पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। डॉ० हर्मन जेकोबी ने त्रिपिटक साहित्य के आधार पर यह प्रमाणित किया है कि गौतम बुद्ध के पूर्व अर्थात् महावीर के जन्म से भी पहले 'निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय' विद्यमान था और उसके हजारों अनुयायी श्रमण निर्ग्रन्थ के रूप में विचरण करते थे। इस कथन का एक अन्य आधार और भी है कि पालि त्रिपिटक में वर्णित 'सच्चक' द्वारा महावीर को परास्त करने का आख्यान उपलब्ध होता है। सच्चक के पिता भी निर्ग्रन्थ श्रावक थे। उनका निम्रन्थ श्रावक होना यह सिद्ध करता है कि महावीर के पूर्व अवश्य कोई 'निर्ग्रन्थ परम्परा' थी जिसके ये अनुयायी थे। विचारों के नये आयाम नामक अपनी पस्तक में सौभाग्यमल जैन ने भी यही तथ्य प्रस्तुत किया है कि, "यह निर्विवाद है कि भगवान् पार्श्वनाथ का अनुयायी सम्प्रदाय ही 'निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय' कहा जाता था। भगवान् महावीर और पार्श्वनाथ का संदेश पूर्व में 'निर्ग्रन्थ उपदेश' के नाम से प्रसिद्ध था, किन्तु भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् 'निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय' का नाम 'जैन-धर्म' हो गया।' हिन्दू-पुराणों में जैनधर्म की आस्था को 'देव, अर्हन्त और गुरु निर्ग्रन्थ' कहकर पुष्ट किया गया है। मुण्डकोपनिषद् की रचना भृगु अंगिरस नाम के एक मुनि द्वारा होने का उल्लेख है, उसमें जैन-मान्यता के अनेक पारिभाषिक शब्द मिलते हैं। 'निम्रन्थ' शब्द भी इसमें व्यवहृत हुआ है, उसका विशेषण केश-लोच (शिरोव्रतं विवधद्यैस्तु चीर्ण) दिया है। 'निम्रन्थ सम्प्रदाय' के नाम से जैन-धर्म ई०पू० दूसरी से पाँचवीं शताब्दी तक भी विख्यात था। बौद्ध-ग्रन्थ मणिमेखलै में जैन-दर्शन को दो भागों में विभक्त किया गया है - आजीवक और निर्ग्रन्थ। आजीवक सम्पदाय भगवान् महावीर के विरोधी मंक्खलि गोशलक का था और निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय भगवान् महावीर स्वामी का। इसके पश्चात् जब सम्राट सिंकदर मध्य एशिया में आया, तब ‘कियारिशि' नगर में उसने बहसंख्यक निर्ग्रन्थ संतों को देखा, ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। सिकंदर के पश्चात् ई० सन् की सातवी शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी निर्ग्रन्थ संघ का उल्लेख अपने यात्रा-संस्मरण में दिया है। प्रियदर्शी सम्राट अशोक भले ही बौद्ध धर्मानुयायी हो गया था, किन्तु जैनधर्म के सिद्धांतों एवं जैन श्रगण परम्परा का प्रभूत प्रभाव उसके मानस-पटल पर था। इसीलिए उसने अपने स्तंभ-लेखों में यह आज्ञा खुदवाई कि -'मेरे धर्म महामात्य निर्ग्रन्थों सुख-सुविधा एवं पर्याप्त सुरक्षा आदि की सुव्यवस्था करेंगे।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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