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________________ ३८ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००४ जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है जैन परम्परा में चन्द्रावती की भौगोलिक स्थिति की सर्वप्रथम चर्चा विविधतीर्थकल्प अपरनाम कल्पप्रदीप में ही देखने को मिली है। इस स्थान की प्राचीनता के सम्बन्ध में प्रमाणों के अभाव में कुछ भी कह पाना कठिन है किन्तु उक्त ताम्रपत्रों से यह स्पष्ट है कि वि०सं० की १२वीं शती में इसकी प्रसिद्धि रही और विक्रम सम्वत् की चौदहवीं शती में यह स्थान चन्द्रप्रभ के च्यवन, जन्म, दीक्षा और कल्याणक भूमि के रूप प्रतिष्ठापित हो चुका था। जिनप्रभसरि के वाराणसी के सम्बन्ध में सबसे उल्लेखनीय बात है इस नगरी के चार भागों में विभाजन का वर्णन।१५ सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में वाराणसी का इस प्रकार का विवरण अन्यत्र नहीं मिलता, अत: यह विवरण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। देव वाराणसी के अन्तर्गत जिनप्रभसूरि ने विश्वनाथ के मंदिर की चर्चा करते हुए कहा है कि इसमें चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमा से युक्त एक पाषाण फलक भी रखा हुआ है।१६ इसी ग्रन्थ के "चतुरशीतिमहातीर्थनामसंग्रहकल्प'' में उन्होंने विश्वनाथ के मंदिर के मध्य में चन्द्रप्रभ की प्रतिमा होने की बात कही है। वाराणसी स्थित विश्वनाथ का मंदिर १८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में निर्मित है। हो सकता है प्राचीन मंदिर में जिनप्रतिमायुक्त कोई पाषाणखंड रखा रहा हो। यद्यपि ब्राह्मणीय परम्परा के किसी भी मंदिर में जैनप्रतिमाओं का रखा जाना अस्वाभाविक लगता है किन्तु इसे पूर्णत: असंभव भी नहीं कहा जा सकता। राजधानी वाराणसी में यवनों के निवास करने का उल्लेख है।१७ यह वर्तमान अलईपुर के आस-पास का का क्षेत्र हो सकता है। आज भी यहां मुसलमानों की जनसंख्या है। वाराणसी के वर्तमान मदनपुरा मुहल्ले को नामसाम्यके आधार पर जिनप्रभ द्वारा उल्लिखित मदन वाराणसी१८ माना जा सकता है। जिनप्रभद्वारा उल्लिखित विजय वाराणसी१९ वर्तमान में छावनी (कैन्टोनमेन्ट .क्षेत्र) हो सकता है। चूंकि प्राचीनकाल में शहर के बाहर विजयस्कंधावार, जिसे छावनी भी कहा जाता था, स्थापित किये जाते रहे। इस आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वाराणसी का वर्तमान कैन्ट क्षेत्र, जिसे आज भी छावनी कहा जाता है, विजय वाराणसी हो सकता है। मध्य युग में पश्चिम भारत से सम्मेतशिखर जाने वाले प्रायः सभी यात्री संघ वाराणसी होते हुए ही गुजरते थे क्यों कि यह उनके मार्ग में स्थित था साथ ही यह सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पार्श्वनाथ व श्रेयांसनाथ की जन्म भूमि के रूप में भी मान्य रहने से प्रत्येक जैन धर्मावलम्बी के लिये अपार श्रद्धा का भी केन्द्र रहा और आज भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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