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________________ कल्पप्रदीप में उल्लिखित वाराणसी के जैन एवं अन्य कतिपय तीर्थस्थल : ३७ के पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थकार ने कोई चर्चा की हो, ऐसा देखने में नहीं आया है। उन्होंने इस नगरी से सम्बन्धित जैन मान्यताओं का उल्लेख करते हुए सर्वप्रथम इसके भौगोलिक स्थिति की चर्चा करते हुए इसे वाराणसी नगरी से अढाई योजन दूर स्थित बतलाया है। ९ अस्याश्चसार्धयोजनद्वयात्परतश्चन्द्रावती नाम नगरी, यस्यां श्रीचन्द्रप्रभोर्गर्भावतारादिकल्याणिकचतुष्टयमखिलभुवनजनष्टिकरमजनिष्ट। o मध्य युग में रची गयी विभिन्न तीर्थमालाओं में भी उक्त बात का समर्थन किया गया है । हमारे सामने यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि वर्तमान चन्द्रावती की प्राचीनता कितनी है ? क्या जैनों के अलावा किसी अन्य धार्मिक परम्परा से भी इसका सम्बन्ध रहा है? क्या यहां से कुछ पुरावशेष प्राप्त हुए हैं जिनके आधार पर इसी ऐतिहासिकता को स्पष्ट किया जा सके ? जहां तक इस स्थान की भौगोलिक स्थिति का प्रश्न है, यह वाराणसी से लगभग २० मील दूर उत्तर- -पूर्व में गंगा के पश्चिमी तट पर एक संरक्षित एवं विशाल टीले पर स्थित है और भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग द्वारा प्राचीन स्मारक घोषित है । ११ यहां श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों के एक-एक जिनालय हैं जो क्रमशः वि०सं० १८९२ एवं १९१३ में निर्मित हैं। यह बात जिनालयों इन पर उत्कीर्ण लेखों से ज्ञात होती है । १२ ई० सन् १९१२ की बाढ़ में गंगा नही की तीव्र धारा द्वारा यहां टीलों के रूप में अवस्थित भग्नावशेषों के तीव्र कटाव से एक पाषाण मंजूषा प्राप्त हुई जिसमें गहड़वाल शासक चन्द्रदेव (वि० सं० १९४२ - ५७ ) के दो ताम्रपत्र प्राप्त हुए। प्रथम ताम्रपत्र पर वि० सं० ११५० और द्वितीय पर वि०सं० ११५६ के लेख उत्कीर्ण हैं। द्वितीय ताम्रपत्र में चन्द्रावती स्थित चन्द्रमाधव के देवालय को सम्राट चन्द्रदेव द्वारा दिये गये भूमिदान का विस्तृत विवरण है। १३ इससे स्पष्ट है कि १२वीं शताब्दी में यहां चन्द्रमाधव का प्रसिद्ध एवं महिम्न देवालय विद्यमान था। उक्त तामपत्रों के सम्पादन के सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ दयाराम साहनी ने इस स्थान का सर्वेक्षण भी किया। उनके विवरणानुसार यहां स्थित श्वेताम्बर जिनालय स्थानीय ग्रामवासियों में चन्द्रमाधो (चन्द्रमाधव) के मंदिर के नाम से जाना जाता था। साहनी ने इस मंदिर के उत्तरी दीवाल पर वि० सं० १७५६ का एक शिलालेख तथा मंदिर में वि० सं० १५६४ की भगवान् शांतिनाथ की काले पाषाण की एक प्रतिमा होने की बात कही है। १४ आज यहां उक्त जिनालय में न तो वि० सं० १७५६ का उक्त शिलालेख ही दिखाई देता और न उक्त प्रतिमा ही । भेलूपुर स्थित दिगम्बर जैन मंदिर में उक्त तिथि की श्याम पाषाण की शांतिनाथ की एक प्रतिमा वेदी में प्रतिष्ठित है जिसके बारे में वहां के पुजारी से ज्ञात हुआ कि उसे चन्द्रावती से लाया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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