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________________ ३६ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००४ वाराणसी नगरी के अनेक तालाबों एवं दण्डखात नामक तालाब के निकट पार्श्वनाथ के जन्मभूमि स्थल पर निर्मित मंदिर का उल्लेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आज भी इस नगरी में अनेक पक्के तालाब हैं। दण्डखात नामक तालाब के निकट जो पार्श्वनाथ का मंदिर बतलाया गया है, उसे वर्तमान भेलूपुर मुहल्ले में स्थित पार्श्वनाथ के मंदिर के स्थान पर ही मानना चाहिए। यहां मंदिर के जीर्णोद्धार हेतु करायी जा रही खुदाई में भगवान पार्श्वनाथ की एक भग्न प्रतिमा तथा कुछ अन्य जैन प्रतिमायें एवं कलाकृतियां प्राप्त हुई हैं। खुदाई के समय असावधानीवश पार्श्वनाथ की प्रतिमा खंडित हो गयी। प्राचीन भारतीय स्थापत्यकला के मर्मज्ञ और सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रो० एम०ए० ढांकी ने उक्त प्रतिमा का निरीक्षण कर उसे ई० सन् की ५वीं शती का बतलाया है। यहाँ से प्राप्त अन्य कलाकृतियों को उन्होंने ९वीं और ११वीं शताब्दी का घोषित किया है। यहां से प्राप्त उक्त पुरावशेषों के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आज जहां पार्श्वनाथ का मंदिर है, उसी स्थान पर कम से कम ५वीं शताब्दी में भी रहा होगा। जहां तक दण्डखात नामक तालाब की बात है, यद्यपि यहां आज कोई भी तालाब नहीं है किन्तु भेलूपुर का निकटवर्ती वर्तमान रवीन्द्रपुरी कालोनी तालाब को पाट कर ही बनायी गयी है। यह क्षेत्र आसपास के अन्य क्षेत्रों से नीचा है और इसी लिये यहां आज भी वर्षा का जल पर्याप्त मात्रा में इकत्र होकर आवागमन को अवरुद्ध कर देता है। यदि पाट कर आवासीय क्षेत्र बनाये गये तालाब को ही दण्डखात तालाब मान लें तो जिनप्रभसूरि की बात का स्वतः समर्थन हो जाता है, क्योंकि यहां से जन्मभूमि मंदिर अत्यन्त निकट ही है। वाराणसी नगरी की तत्कालीन दशा का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि यहां ब्राह्मण, परिव्राजक, जटाधारी, योगी, चारों दिशाओं से आये हुए लोग निवास करते हैं। ये रस विद्या, धातु विद्या, खनन विद्या, मंत्रशास्त्र, तर्कशास्त्र, निमित्तशास्त्र, नाटक, अलंकार, ज्योतिष आदि के ज्ञाता होते थे। ६०० वर्ष पश्चात् आज भी उक्त वर्णन अक्षरश: सत्य दिखाई देता है। जिनप्रभसरी ने वाराणसी से तीन कोश (अर्थात १८ किलोमीटर लगभग) दर धर्मेक्षा नामक बौद्ध स्तूप और बौद्ध आयतन होने की बात कही है। ग्रन्थकार का उक्त विवरण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। मुस्लिम शासन के प्रारम्भिक चरण में ही जहां नालन्दा और विक्रमशिला के बौद्ध विहार नष्ट कर दिये गये वहीं चौदहवीं शताब्दी में भी एक बौद्ध केन्द्र का सुरक्षित रहना और एक इतर धर्मावलम्बी मुनि द्वारा उसका उल्लेख करना अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने धर्मेक्षा स्तूप की वारणसी नगरी से जो दूरी बतलायी है, वह आज भी देखी जा सकती है। आठवें तीर्थंकर भगवान् चन्द्रप्रभ के च्यवन, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान ये ४ कल्याणक चन्द्रपुरी नामक नगरी में होने की बात जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों के प्राचीन ग्रन्थों में प्राप्त होती है, परन्तु इसकी भौगोलिक स्थिति के बारे में जिनप्रभसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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