SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२ अक्टूबर-दिसम्बर २००४ जैन कथा-साहित्य का गौरव- 'वसुदेव हिण्डी' वेद प्रकाश गर्ग - ___श्री कृष्ण के पिता वसुदेव जैन मान्यतानुसार २०वें कामदेव हैं। उनका चरित जैन-साहित्य में रोचक एवं व्यापक रूप में वर्णित है। इस प्रकार की रचनाओं में वसुदेव हिण्डी का अपना एक विशिष्ट स्थान है। वसुदेवहिण्डी का अर्थ है - वसुदेव की यात्राएँ। इस ग्रंथ में कृष्ण के पिता वसुदेव के भ्रमण (हिण्डन) की रोचक एवं कौतुकपूर्ण कथाएँ दी गई हैं। अपनी यात्राओं में वसुदेव को जो अनुभव प्राप्त हुए उनका समावेश इस कथा ग्रंथ में है। यह वृत्तान्त साहसिक एवं श्रृंगारी उपाख्यानों से भरा है। वास्तव में इसमें काम-कथाओं पर आधारित धर्म-कथाएं हैं। इस प्रकार यह प्राचीन जैन महाराष्ट्री में लिखा हुआ एक महत्त्वपूर्ण कथामक है। बृहत्कथा कल्प इस वसुदेवहिण्डी के चार प्रमुख अधिकारों - ‘पीठिका', 'मुख' 'प्रतिमुख' और 'शरीर' (अपूर्ण) में वसुदेव और उनके पूर्वजों-वंशजों की कथा परिगुम्फित है। “वसुदेव ने किस प्रकार परलोक में फल प्राप्त किया? राजा श्रेणिक के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने उनसे कहा कि आप पहले “पीठिका” सुनें, क्यों कि यह वसुदेव के बहुत महान् इतिहास के प्रासाद की पीठ (आधारभूमि) है" और इसी क्रम में लगातार भगवान् ने 'मुख' और 'प्रतिमुख' नामक अधिकारों द्वारा कथा को उद्भावित किया है। ___ ग्रंथ-कर्ता ने ग्रंथ की प्रस्तावना में कहा है - 'गुरु परम्परा से आगत वसुदेव चरिय नामक संग्रह का मैं वर्णन करूँगा।' और रचनाकार ने प्रथमानुयोग के तीर्थकरचक्रवर्ती एवं दशार-वंश के राजाओं के वर्णन का अनुसरण करके 'वसुदेव चरित' का उपदेश किया है। इस प्रकार वसुदेवहिण्डी के नायक कृष्ण-पिता वसुदेव हैं। रचयिता ने उसे जैन-कथा का रूप प्रदान किया है। श्रमण-परम्परा की इस महान् कथा कृति की रचना आचार्य संघदास गणि ने की थी। ग्रंथ-कर्ता संघदास गणि वाचक के संबंध में कोई सुनिश्चित् जानकारी प्राप्त नहीं होती, किंतु यह कथा आगमेतर साहित्य में प्राचीनतम मानी जाती है और आवश्यकचूर्णि के कर्ता जिनदास गणि ने इसका उपयोग किया है। निशीथचूर्णि में भी इसका उल्लेख है तथा जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की कृतिं विशेषणवती में भी इसका निर्देश है। अत: इन उल्लेखों से अनुमान किया जा सकता है कि संभवत: इसकी रचना ईसा की तृतीय-चतुर्थ शती में हुई थी। इसकी भाषा भी प्राचीन महाराष्ट्री प्राकृत * १४, खटीकान, मुजफ्फरनगर, उ०प्र० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy