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________________ २८ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००४ है, जिसकी तुलना चूर्णि ग्रन्थों से की जा सकती है। इसमें जैन महाराष्ट्री का प्राचीनतम रूप विद्यमान होने से रचना काल संबंधी उक्त अनुमान संभव प्रतीत होता है। यह कथाग्रंथ गद्यात्मक समासान्त पदावली से युक्त है। बीच-बीच में पद्य भी हैं। इसकी भाषा सरल, स्वाभाविक एवं प्रसाद-गुण सम्पन्न है। यह रचना वर्णनात्मक कथा होते हुए भी काव्यत्व की गरिमा से ओत-प्रोत है। इस ग्रंथ में ३८ लम्भक हैं और उसका परिमाण लगभग ११ हजार श्लोकों का है। दुर्भाग्य से यह कृति अपूर्ण है। इसके मध्य के दो लम्भक (सं० १९ व २०) एवं अंतिम उपसंहार अप्राप्य है तथा बीच-बीच में भी कुछ अंश त्रुटित हैं। चौथा अधिकार 'शरीर' भी अपूर्ण है। वसुदेवहिण्डी का संपादन प्राकृत के प्रकाण्ड विद्वान् मुनि चतुर विजय एवं पुण्यविजय जी ने किया। इसका प्रथम संस्करण सन् १९३०-३१ ई० में श्री आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर से दो भागों में प्रकाशित हआ। डॉ० भोगीलाल जयसिंह सांडेसरा द्वारा किया गया इस ग्रन्थ का गुजराती अनुवाद भी उक्त संस्था' से ही सन् १९४६ में प्रकाशित हुआ। आचार्य संघदास गणि की यह महाकृति वसुदेवहिण्डी वास्तव में एक प्रकार से गुणाढ्य की पैशाची प्राकृत में रचित बृहत्कथा (बड्ड कहा) का ही जैन-रूपानन्तर है। इसकी पुष्टि कथासरित्सागर, बृहत्कथामंजरी, बृहत्कथाश्लोकसंग्रह तथा संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा में रचित अन्य जैन कथात्मक ग्रन्थों के तुलनात्मक अध्ययन से होती है। बृहत्कथा में नरवाहनदत्त की कथा दी गई है और इसमें वसुदेव का चरित वर्णित है। बृहत्कथा की भाँति इसमें भी शृंगार कथा की मुख्यता है, किंतु रचयिता ने जैन धर्मी होने से इसे वैराग्यपरक उपदेशात्मक धर्मकथा के रूप में परिणते कर दिया है। अर्थात् इस ग्रन्थ को काम कथाओं पर आधृत धर्मकथा की संज्ञा दे सकते हैं। कथानकों की शैली सरस एवं सरल है। बृहत्कथा पर आधृत होते हुए भी यह ग्रन्थ अपना निजी मौलिक वैशिष्ट्य रखता है। जैनेतर रचनाकारों के मध्य भी यह महत्कथा ग्रन्थ अत्यन्त लोकप्रिय रहा है। वस्तुत: वसुदेवहिण्डी की कथाएं (परिच्छेद) उप कथाओं के द्वारा परस्पर अनुस्यूत हैं। मूल कथा के भीतर कथाओं की परम्परा चलती है, जिनमें धर्माचरण पर बल देने के लिए मुनिजनों द्वारा उद्घाटित पूर्वभव-वृत्त, महाव्रत आदि अन्यान्य विचार भावों के साथ ही चक्रवर्तियों एवं तीर्थंकरों की जीवनियां तथा जैन रामायण आदि धार्मिक विषय अनुगम्फित हैं। अत: जैनागमेतर साहित्य में यह ग्रन्थ उत्तरकालीन जैन लेखकों के लिए एक आदर्श बन गया है और यही कारण है कि उत्तरकालीन अनेक काव्य-कथाओं का यह उपजीव्य ग्रन्थ है। इससे इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता कि जैन-कथा साहित्य के इतिहास और उसके विकास में वसुदेवहिण्डी ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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