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________________ २६ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००४ सांस्कृतिक विरासत के रूप में हमें छोड़ गये हैं जैसे पुरातात्विक सामग्री, पाण्डुलिपियां, मूर्तियां, आयागपट्ट, स्तूप, शिलालेख, मूर्तिलेख, यंत्रलेख तथा और बहुत सी ऐतिहासिक सामग्री, जो श्रमण संस्कृति के उत्थान और विकास में सहायक सिद्ध हुई हैं। यदि वे सारी सामग्रियां उपलब्ध रही होती तो जैन धर्म से सम्बद्ध पुरातात्त्विक साक्ष्यों की संख्या संसार में सबसे अधिक होती, पर हमारा दुर्भाग्य कि वह सब हम बचा नहीं सके। हमारा प्रमाद और अज्ञान हमें अपने सांस्कृतिक धरोहर को बचाने में सदैव बाधक रहा है। पाण्डुलिपियों के संबंध में हम इतने अधिक प्रमादी और अज्ञानी रहे कि हम उन्हें चूहों, दीमक, सीलन आदि से नहीं बचा सके और उनमें से अधिकांश सदासदा के लिए नष्ट हो गईं अब उन्हें पुन: तैयार करना सूर्य को दीपक दिखाना मात्र रह गया है। साम्प्रदायिक विद्वेष के कारण एक विद्वान् ने कहा था कि यदि किसी धर्म को नष्ट करना है तो सबसे पहले उसके साहित्य को नष्ट कर दो और उसी दुर्भावना का प्रभाव हुआ कि दक्षिण में ताड़पत्र के बहुमूल्य ग्रंथ इतनी अधिक मात्रा में जलाये गये थे कि उनकी आग छह माह तक नहीं बुझी थी। कल्पना करें उन जलाये हुए ग्रंथों में कितने ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ रहे होंगे कि जिनके लिए आज हम भटक रहे हैं। हमारी उपेक्षा एवं अज्ञानता का परिणाम यह हुआ कि हजारों ग्रंथ चूहे और दीमकें चट कर गईं और हम हाथ मलते रह गये और उन अवशेषों को या तो नदियों में बहा दिया या यज्ञ में हवन सामग्री के रूप में समर्पित कर दिया। पुरातत्त्व की दृष्टि से मथुरा का कंकाल टीला प्रसिद्ध है जहां जैन पुरातत्त्व की बड़ी संख्या में प्राचीन सामग्री निकली पर प्राकृतिक आपदाओं से वह नष्ट-भ्रष्ट हो गई या विद्वेष भाव से नष्ट कर दी गई। अब तो पुरातात्विक दृष्टि से बहुमूल्य मूर्तियाँ, विदेशों में लके-छिपे बिक कर पहंच रही हैं। शासन ने इन सबके पंजीकरण का नियम बना दिया है पर कोई भी इस तरफ ध्यान नहीं देता और प्रतिमाओं की चोरी जारी है। पंजीकरण के अभाव में पुलिस भी कुछ नहीं कर पाती है। अतः हमें अपनी मूर्तियों एवं पाण्डुलिपियों की सुरक्षा तथा उनका प्रकाशन करना चाहिए। व्यर्थ के प्रदर्शनकारी कार्यों में समाज के धन का अपव्यय नहीं होना चाहिए तथा भंडारों का सूचीकरण कर प्राचीनतम प्रतियां ढूंढ़नी चाहिए। यहाँ से प्राप्त पुरावशेष मथुरा और लखनऊ के संग्रहालयों में संरक्षित हैं। सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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