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________________ १६ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२ / अक्टूबर-दिसम्बर २००४ १. उच्च शिक्षा जितनी अधिक होगी, धार्मिकता उतनी ही कम होगी। २. आय जितनी अधिक होगी, धार्मिकता उतनी ही कम होगी। यहां धार्मिकता से तात्पर्य अमूर्त तत्त्वों में विश्वास और भक्ति है। धर्म प्रायः अमूर्त तत्त्वों की सत्यता की परीक्षा करते हैं। इस क्षेत्र में अभी विज्ञान नहीं पहुंचा है। पश्चिमी विचारकों के ये निष्कर्ष परीक्षा प्रधानी जैनधर्म पर लागू नहीं होते। इसमें व्याख्याओं एवं परिवर्तनों के प्रति रुचि रही है। इसने अन्यों द्वारा आरोपित व्यक्तिवादी चरित्र और सिद्धांतों को सामाजिक एवं विश्वीय रूप दिया है। यह अपनी प्राचीन मान्यताओं के परीक्षण एवं परिवर्धन के प्रति जागरूक है। यह तथ्य आगे दिये विवरणों से स्पष्ट हो जायेगा। आगम या आगम- कल्प ग्रंथों का स्वरूप , जैन समग्रतः अनेकांतवादी हैं और व्यवहारतः नयवादी भी हैं। इनके अंतर्गत, धवला के अनुसार छह निक्षेपों के आधार पर अथवा यदि नाम और स्थापना को छोड़ दिया जाय, तो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार वस्तु तत्त्व का वर्णन किया जाता है। जीव तत्त्व के विवरण में भव भी एक आधार होता है । इस दृष्टि से हम देखें, तो हमारे आगम- कल्प ग्रंथों का विवरण निम्न रूप में दिया जा सकता है : १. द्रव्य दृष्टि से : आरातीय (परवर्ती) आचार्यों द्वारा रचित हैं। २. क्षेत्र दृष्टि से : मगध (पाटलिपुत्र), मथुरा, हाथीगुंफा या वलभी में संकलित हुए हैं। ३. काल दृष्टि से : इनका ग्रंथ संकलन काल ३६० ई०पू० से ४५३-६३ ई०पू० के बीच है और अर्थ की दृष्टि से अनादि की मान्यता के बावजूद भी, ये पार्श्व (८७७-७७७ ई०पू०) और महावीर (५९९-५२७ ई०पू०) के काल में दिव्य-ध्वनित किये गये थे। उत्तरवर्ती ग्रंथ भिन्न-भिन्न समयों में रचे गये हैं। ४. भाव की दृष्टि से : इनके रूप में विभिन्न वाचनाओं के समय परिवर्धन किया जाता रहा है। पार्श्वनाथ की सचेत - अचेल धारणा महावीर - युग में अचेल में परिणत हुई। पंचाचार आचार-त्रिक में संक्षिप्तीकृत हुआ। अनेक नई अवधारणायें जुड़ीं। संकलित या संशोधित आगमों को किसी ने मान्य किया और किसी ने अमान्य । किसी ने ११ अंगों का लोप बताया, तो किसी ने मात्र दृष्टिवाद का । शास्त्री ने कहा कि दिगंबरों को संकलन की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई क्योंकि सार्वजनिकता की धारणा आगमों पर लागू नहीं होती। पर मूल रचयिता की दृष्टि से, ये पार्श्वनाथ एवं महावीर के तीर्थंकर भव में निर्मित हु थे। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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