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________________ आगमिक मान्यताओं में युगानुकूलन : १५ का उपदेश भी देते हैं। पर विज्ञान की अपनी सीमा है। वह अभी भौतिक जगत् और जीवन से संबंधित घटनाओं की ही आंशिक या समग्र व्याख्या करने का प्रयोगबद्ध प्रयत्न करता है। अध्यात्म जगत् अभी उसकी सीमा से परे है, यद्यपि उस क्षेत्र में यह प्रवेश करता प्रतीत होता है। आजकल क्या, प्रत्येक युग में परम्परावादी और मध्यमार्गी परम्परायें रही हैं। पहली परम्परा चिर-प्रतिष्ठित मान्यताओं को त्रैकालिक मानती रही है और दूसरी परम्परा मान्यताओं और विचारों में युगानुकूल परिवर्तन की पोषक रही है। यह सही है कि मध्यमार्गी परम्परा के अनुयायियों की संख्या कम रही है और उन्हें परम्परावादियों के आक्रोश का भाजन भी बनना पड़ता है। पश्चिम में तो मध्ययुग में और अभी भी पर्याप्त मात्रा में, यह आक्रोश विकराल रहा है, पर भारत में ऐसी स्थिति नहीं आई। इसका कारण यह है कि प्रारंभ के आचार्य तो, नेमचन्द्र शास्त्री के अनुसार, श्रुतधर, सारस्वत और प्रबुद्ध कोटि के थे उन्होंने जैन मान्यताओं को युगानुरूप बनाये रखने का प्रयत्न किया। उसके उत्तरवर्ती काल में परम्परापोषक आचार्यों और भट्टारकों की परम्परा चली। उन्हें विदेशी आक्रमणों, राजकीय विरोधों तथा साहित्य भण्डारों/मंदिरों के विध्वंसों के कारण अन्तर्मुखता धारण करनी पड़ी। उन्होंने 'जो है सो' उसके परिरक्षण की वृत्ति अपनाई। इससे आज हमारा शास्त्रीय ज्ञान दसवीं-ग्यारहवीं सदी की मान्यताओं के परिक्षण पर आधारित है। यह पिछले एक हजार वर्ष में हुई बौद्धिक एवं वैज्ञानिक प्रवृत्ति और वर्धमान ज्ञान-क्षितिज के प्रति न केवल उदासीन है, अपितु शास्त्रीय विवरणों को ही वरीयता देता है। यह जैन धर्म की वैज्ञानिकता को घोषित करने की प्रवृत्ति और मानसिकता के प्रतिकूल है। ____ इसके बावजूद भी परम्परावादियों की तुलना में जैनों में प्रत्येक युग में प्रगतिशील आचार्य और विद्वान् भी हुए हैं जिन्होंने धार्मिक सिद्धांतों एवं आचार-विचारों में युगानुकूलन बनाये रखने का प्रयत्न किया। इनमें पूर्व में दिये गये आचार्य सिद्धसेन के अतिरिक्त, पुराण युग के अनेक आचार्य, जिनसेन, लोकाशाह, तारणस्वामी, ब्र० शीतल प्रसाद, स्वामी सत्यभक्त, अमर मुनि, आचार्य तुलसी, कानजी स्वामी आदि प्रमुख हैं। इनके कारण जैन धर्म में वैज्ञानिकता एवं आधुनिकता के बीज पुष्पित होते रहे हैं। पश्चिमी विचारकों ने ईसाई जगत् के उदाहरण से कुछ निष्कर्ष निकाले हैं जिनमें एक यह है कि धर्म आधुनिकता और वैज्ञानिकता का विरोधी है। उन्होंने इस निष्कर्ष को भारतीय धर्मों पर भी प्रयुक्त किया है, जो सही नहीं है। इसी प्रकार, कार्ल मार्क्स ने भी कहा है कि विभिन्न धर्म नव परिवर्तन के प्रति अरुचिशील होते हैं एवं बौद्धिक स्वतंत्रता के शत्रु हैं। उसका कथन है कि मनुष्य बिना धर्म के भी अच्छा नैतिक रह सकता है। संगठित धर्म तो यथास्थितिवादी होते हैं। अमरिका में १९९९ में की गई एक शोध से पता चलता है कि - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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