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________________ आगमिक मान्यताओं में युगानुकूलन : १७ इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे आगम या आगम-कल्प ग्रंथ विशेष क्षेत्रों में, विशेष कालों में, विविध रूपों (अर्थ, ग्रंथ) में रचित हुए हैं। शास्त्रीय मान्यताओं के कारण वर्तमान समस्यायें : (अ) क्षेत्रगत दृष्टि : जैन भूगोल विश्व को स्थिर मानता है, पर पिछले और आज के भौगोलिक परिवर्तनों को देखते हुए यह अवधारणा विचारणीय है। शास्त्रों पर अश्रद्धान हो, इसलिये एक विश्रुत परम्परावादी पंडित (मेरे गुरु, अब स्वर्गीय) ने मुझे सुझाव दिया था कि इस विषय में समाज में चर्चा ही नहीं करनी चाहिये। अब क्षेत्रों में परिवर्तन हुआ है, मगध क्षेत्र में उपदिष्ट अर्थागम एवं वहीं पर संकलित आगम संपूर्ण भारत एवं विश्व क्षेत्री मान लिये गये। इस क्षेत्र परिवर्तन से अनेक समस्यायें सामने आई हैं: १. क्षेत्रगत समस्या : विश्व के विभिन्न क्षेत्रों (यूरोप, अमरीका, ग्रीनलैंड, उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव आदि) में सूर्योदय, सूर्यास्त की अनेक विविधताओं (१८ घंटे की रात या दिन, छह महीने की रात या दिन आदि) के कारण इसके आचार (जैसे रात्रि-भोजनत्याग, कुंए का पानी, कंडे एवं लकड़ी की आग से बना भोजन, देवपूजा या स्थंडिल भूमि या मिट्टी पर शौच आदि) का पूर्णत: पालन नही हो सकता। २. औद्योगीकरण का प्रभाव : इसके कारण व्यस्त हो रही जीवनचर्या में तथा शीत ऋतु की जटिलता के कारण सामान्य आहार की चर्चा कठिन हो जाती है। फलत: प्रशीतित एवं शीघ्रभक्ष्यी खाद्य और उनकी विविधता स्वीकार करनी पड़ती है जो तीर्थंकर के संपादक के अनुसार हानिकारक है। इन परिस्थितियों में साधुधर्म, विशेषतः दिगम्बर साधु धर्म, का पालन भी नहीं हो सकता। फलत: विश्व की ९९.९८% जनता (जैन तो मात्र ०.०२ प्रतिशत ही हैं) जैन सिद्धांतों के ज्ञान, पालन एवं जीवनलक्ष्यों की प्राप्ति से विमुख ही रहेंगे। ऐसी स्थिति में जैन धर्म की विश्वधर्म की मान्यता का अर्थ क्या है? इसके लिये उसे अपनी आचार-प्रक्रिया में क्षेत्र-काल-भाव-गत परिवर्धन आवश्यक है। ३. भक्तिवाद : विश्व के अधिकांश धर्म भक्तिवाद के प्रचण्ड उद्घोषक हैं और उसी का वातावरण बना रहे हैं। 'तारणहार' की मनोवैज्ञानिकता से स्वावलंबी जैन संस्कृति महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित होती है। ४. जनभाषा : पार्श्व और महावीर ने जनभाषा में उपदेश दिये थे और जिनवाणी भी सर्व समाहारी अर्ध-मागधी भाषा में ग्रंथित हुई हुई है। विश्व के प्रायः सभी देशों की जनभाषा भिन्न-भिन्न है। जिनवाणी इन भाषाओं में नहीं है। अतः उसकी प्रभावकता कैसे विश्वव्यापी हो सकती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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