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________________ ५६ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४ हाँ, यह हो सकता है कि गीत-गायिकाओं के प्रकारों को ही उपलक्षण से गीतगायकों के प्रकार भी मान लिया जाए। गीत की भाषा : अनुयोगसूत्र में गीत की दो ही भाषाएँ प्रशस्त और ऋषिभाषित मानी हैं - संस्कृत और प्राकृत। वर्तमान युग में तो गीत अनेकों भाषाओं में गाये जाते हैं। काव्य-प्रकार : स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान के चतुर्थ उद्देशक में काव्य के चार प्रकार वर्णित हैं - चउव्विहे कव्वे पण्णते। तं जहा - गज्जे, पज्जे, कत्थे, गेए। (पृ० ४४२, ब्यावर) अर्थात् काव्य चार प्रकार का होता है - १) गद्य काव्य - छन्द-रहित रचना-विशेष, २) पद्य काव्य - छन्द-युक्त रचनाविशेष, ३) कथ्य काव्य - कथा रूप से कही जाने वाली रचना-विशेष, ४) गेय काव्यगाने के योग्य रचना-विशेष। काव्य के इन चार प्रकारों के वर्णन से प्रतीत होता है कि उस प्राचीन युग में इन चारों प्रकार के काव्यों का प्रचलन था। जबकि वर्तमान हिन्दी युग के कवि छन्द-रहित रचना-विशेष को 'नई कविता' के नाम से वर्तमान युग का (या अंग्रेजी युग की) देन मानते हैं। जैसे उस प्राचीन युग में ये चारों प्रकार के काव्य लिखे जाते थे, वैसे ही आज भी लिखे जाते हैं। अर्थात् यह चतुर्विध काव्य-परम्परा प्राचीन काल से वर्तमान काल तक अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है और पाठक या श्रोता इन काव्यों के मधर, सुश्राव्य, सुपाठ्य सुरों में अपना सुर मिला कर समस्वरता/ समरसता/ एकरसता/ तन्मयता/ एकतानता/ साधारणीकरण की अनुभूति करता रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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