SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संवेगरंगशाला में प्रतिपादित मरण के सत्रह प्रकार : ४७ साधुओं से क्षमायाचनापूर्वक आत्म आलोचना करके चारों आहार का त्याग करके शरीर को त्याग देना ही परमनिरुद्धत्तर अविचारभक्तपरिज्ञामरण कहा जाता है। (१६) इंगिनीमरण :- संवेगरंगशाला में इंगिनीमरण का अर्थ बनाते हुए कहा गया है कि क्षपक गमनागमन हेतु क्षेत्र की सीमा निर्धारित करके ही उस क्षेत्र में चेष्टा करते हुए अनशन द्वारा देह त्याग करना ही इंगिनीमरण है। यह मरण चारों प्रकार का आहार त्याग करने वाले, शरीर की सेवा-शुश्रूषा नहीं कराने वाले और एक विशेष क्षेत्र में रहकर देह त्याग करने वाले को ही प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ में इंगिनीमरण को ग्रहण करनेवाले एक प्रज्ञावान मुनि को अनुकूल एवं प्रतिकल उपसर्गों की किस प्रकार सहन करना चाहिए, इसका भी सुन्दर विवेचन किया गया है। इंगिनीमरण भक्तपरिज्ञा से विशिष्ट मरण है। भक्तपरिज्ञा में की जाने वाली साधना तो इसमें भी की ही जाती है किन्तु इसमें साधक दूसरों से किसी प्रकार की सेवा न लेकर संथारा ग्रहण करने के अनन्तर स्वयं ही शरीर के आकुंचन, प्रसारण, उच्चार आदि की क्रियाएँ करता है। (१७) पादपोपगमनमरण :- संवेगरंगशाला के अनुसार मरण के इस अन्तिम प्रकार में साधक बिना हलन-चलन किए मृत्यु पर्यन्त कटे हुए पेड़ की तरह एक स्थान पर पड़ा रहकर देह त्याग करता है। इसे पादपोपगमनमरण कहते हैं। इस मरण के निम्न दो प्रकार हैं - नीहारिम और अनीहारिम। (१) साधक को कोई हरणकर या उठाकर ले जाए और इस प्रकार उसका देह त्याग अन्य स्थान पर हो तो उसे नीहरिमपादपोपगमनमरण कहते हैं। (२) यदि साधक अपने स्थान पर ही मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसे अनीहारिम पादपोपगमनमरण कहते हैं। इस मरण को स्वीकार करने वाला साधक न स्वयं शरीर की सेवा, शुश्रूषा करता है, न दूसरों से सेवा करवाता है। वह शरीर के प्रति पूर्णत: ममत्व का त्याग करता है। किसी के द्वारा शरीर को गन्ध विलेपन आदि लगाने या देह को काट देने पर भी मुनि किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं करता है। वह शरीर को जड़वत् छोड़ देता है क्योंकि वह हलन-चलन की प्रवृत्ति से रहित होता है। संवेगरंगशाला का यह विर्वचन मूलतः आगमाधारित है। सर्वप्रथम समवायांगसूत्र' में मरण के उपर्युक्त सत्रह प्रकारों का उल्लेख है। समवायांग और संवेरंगशाला के नामों एवं उनके अनुक्रमों में समानता दृष्टिगोचर होती है। इससे यह निश्चित होता है कि ग्रन्थकर्ता जिनचन्द्रसूरि ने मरण के इन भेदों का उल्लेख इसी आगम ग्रन्थ के आधार पर किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy