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________________ ४६ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४ आसक्ति पापबन्ध का कारण है। अत: ऐसे आहार को ग्रहण करने से अब मुझे क्या लाभ है? इस तरह विचार कर वह ज्ञानी भगवन्तों के वचनानुसार विषय-भोगों के हेय स्वरूप को जानकर उनका प्रत्याख्यान करता है। प्रत्याख्यान में साधक चारों प्रकार के आहार, पानी, बाह्यउपधि (वस्त्र, पात्रादि) और आभयन्तर उपधि (रागादि) इन सर्व का यावज्जीवन के लिए त्याग करता है। इस प्रकार जो जीव तीन प्रकार अथवा चारों प्रकार के आहार का यावज्जीवन प्रत्याख्यान करता है, उस भक्तपरिज्ञा स्वीकार करके मरण को प्राप्त करना भक्तपरिज्ञामरण कहलाता है। भक्तपरिज्ञा ग्रहण करने वालों को शरीर की सेवा सुश्रूषादि करने की छूट होती है। भक्तपरिज्ञा मरण के सविचार और अविचार इस प्रकार दो भेद हैं - . (१) जिसमें व्यक्ति विचारपूर्वक निश्चय करके क्रमश: आहारादि का त्याग करते हुए देह त्याग करता है, उसे सविचारभक्तपरिज्ञामरण कहते हैं। .. (२) किसी आकस्मिक विपदा के कारण जिस मुनि का आहारादि के क्रमश: त्याग करने का समय न हो अर्थात् अनायासमरण के उपस्थित हो जाने पर जो व्यक्ति समभावपूर्वक मृत्यु को स्वीकार करता है उसे अविचारभक्तपरिज्ञामरण कहते हैं। संवेगरंगशाला में अविचारभक्तपरिज्ञामरण को निम्न तीन भागों में विभक्त किया गया है - (१) निरुद्ध (२) निरुद्धत्तर और (३) परम निरुद्धत्तर। (१) निरुद्ध :- इसमें तत्काल मरण का कारण उपस्थित हो जाने पर अर्थात् असाध्य रोगादि के होने पर अपने ही संघ में रहकर तथा दूसरों की सहायता से आराधना करते हुए देह त्याग करना निरुद्ध अविचार भक्तपरिज्ञामरण कहलाता है। यह मरण भी प्रकाश और अप्रकाश - इस तरह दो प्रकार का है। (२) निरुद्धत्तर :- संवेगरंगशाला के अनुसार सर्प 'अग्नि' सिंह आदि के निमित्त से तत्काल आयुष्य को समाप्त होता हुआ जानकर मुनि की जब तक वाणी बन्द नहीं हुई हो और चित्त व्यथित नहीं हुआ हो तब तक समीप में रहे हुए आचार्यादि के समक्ष सम्यक रूप से अविचारों की आलोचना करना और फिर आहारादि का त्याग करके देह त्याग करना निरुद्धत्तर अविचारभक्तपरिज्ञामरण कहा जाता है। (३) परम निरुद्धत्तर :- रोगादि अथवा अनायास मरण तथा अन्य किसी निमित्त के उपस्थित हो जाने से जब साधक की वाणी भी बन्द हो जाए अर्थात् बोलने में असमर्थ हो जाए, तब उसी समय मन से ही चारों शरण को स्वीकार कर सर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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