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________________ ४४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४ का कहना है कि जीवन में अन्तिम आराधना हेतु सर्व वस्तु का त्याग अनिवार्य है, किन्तु सर्वस्व का त्याग मृत्यु से ही सम्भव है, अत: मृत्यु सम्बन्धी चर्चा हेतु मैं मरणविभक्ति नामक उपद्वार को कहता हूँ। मरण के निम्न सत्रह प्रकार हैं - (१) आवीचिमरण (२) अवधिमरण (३) आत्यान्तिकमरण (४) बलायमरण (५) वशार्तमरण (६) अन्त:शल्यमरण (७) तद्भवमरण (८) बालमरण (९) पण्डितमरण (१०) बालपण्डितमरण (११) छद्मस्थमरण (१२) केवलीमरण (१३) वेहायसमरण (१४) गृद्धपृष्ठमरण (१५) भक्तपरिज्ञामरण (१६) इंगिनीमरण और (१७) पादपोगमनमरण। (१) आवीचिमरण :- संवेगरंगशाला के अनुसार प्रतिसमय आयुष्य कर्म का क्षय होना ही आवीचिमरण है। वीचि अर्थात् जल की तरंग, जिस प्रकार जल में एक तरंग के पश्चात् दूसरी तरंग उठती है, उसी प्रकार आयुष्य कर्म के दलिक प्रतिसमय उदय में आकर नष्ट होते रहते हैं। आयुष्य कर्म के दलिकों का प्रतिसमय क्षय होना ही आवीचि मरण है। अत: प्रतिसमय होने वाला मरण ही आवीचिमरण है। (२) अवधिमरण :- नरकादि गतियों में उत्पन्न होने के निमित्तभूत आयुष्यकर्म के दलिकों को भोगकर वर्तमान में मृत्यु को प्राप्त होता है पुनः उसी प्रकार के कर्म दलिकों को बान्धकर उनको भी उसी प्रकार भोगकर मरता है, ऐसे मरण को संवेगरंगशाला में अवधिमरण कहा गया है। (३) आत्यान्तिकमरण :- जो जीव नरकादि भवों में जिन आयुष्य कर्म के दलिकों को भोगकर मरे और पुन: कभी भी उसी प्रकार के कर्म-दलिकों को न भोगे अर्थात् अनुभव नहीं करे, तो उसे आत्यान्तिक मरण कहते हैं। (४) बलायमरण :- जो जीव संयम लेकर तीनों योग-मनोयोग, वचनयोग और काययोग से च्युत हो गया हो अर्थात् संयमी जीवन से पतित हो गया है, ऐसी स्थिति में जो मरता है, उसका मरण बलायमरण कहलाता है। (५) वशार्त्तमरण :- संवेगरंगशाला में जिनचन्द्रसूरि ने मरण के पाँचवे प्रकार का उल्लेख करते हुए यह कहा है कि जो जीव इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर मरण को प्राप्त होता है, उसे वशालैमरण कहते हैं। (६) अन्तःशल्यमरण :- प्रस्तुतकृति के अनुसार जो लज्जावश अथवा अभिमानवश अपने दुश्चरित्र को गुरु के समक्ष प्रकट नहीं करते हैं अथवा जो गाखरूप कीचड़ में फंसे हुए होने से अपने दोषों को गुरु के समक्ष प्रकट नहीं करते हैं, वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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