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________________ ३८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४ फिर भी वह कुएं में अपने पसीने के मल से पाड़ा बनाकर मारता रहता है। हिंसा की दुर्भावना के कारण उसे कई योनियों में भटकना पड़ता है। ऐसी ही कथा अन्य ग्रंथों में भी कुछ हेर-फेर के साथ मिलती है। जीव रक्षा के रूप में बाज एवं कबूतर की कथा अहिंसा, जीवरक्षा शरणागतवात्सल्य का प्रतिनिधित्व करती है। रयणचूडरायचरियं में भी एक कथा आई है जिसमें हाथी, हथिनी जंगल में आग लगने के कारण अन्य जंगल में चले जाते हैं तथा वे मरे नहीं।' अहिंसा के साथ-साथ ज्ञाताधर्मकथा में संयम के महत्त्व के रूप में श्रृंगाल एवं दो कछुओं की कथा है जिसमें संयम का महत्त्व बताया गया है। प्राकृत कथा साहित्य के अन्तर्गत रत्नशेखर नृपकथा में बताया गया है है कि पर्व के दिनों में अपनी पत्नी रत्नवती द्वारा संभोग की याचना करने पर भी उसको ठुकरा देता है, उसके फलस्वरूप उसे विजयश्री मिलती है। उत्तराध्ययनसूत्र में शील एवं संयम के रूप में राजीमती की कथा प्रसिद्ध है जिसमें वह उपदेश देकर प्रतिबोधित करती है। संयम एवं शील का अन्योन्य संबंध है। शील महात्म्य की कथायें आगमों से लेकर स्वतंत्र कथा ग्रंथों में मिलती हैं। ज्ञाताधर्मकथा के ८वें मल्ली अध्ययन में राजकुमारी मल्ली ने स्वर्ण प्रतिमा के मस्तक से ढक्कन हटाया तो एक सड़ांध गन्ध निकली और लोग भागने लगे। तब उसने कहा “मानव में कितने अशुचि पदार्थ भरे हुए हैं फिर उनके पीछे इतना राग क्यों है।"" ऐसी ही कथा कुछ परिवर्तन के साथ रयणचूडरायचरियं में भी मिलती है। राजा के आसक्त होने पर उसको समझाने के लिये मदनसुंदरी अलग-अलग रंग के रेशमी वस्त्रों से ढककर विभिन्न व्यंजनों का भोजन रखकर एक ही स्वाद बताकर उपदेशित करती है कि स्त्रियां सभी एक जैसी होती हैं, केवल उनकी सुन्दरता बाह्य आवरण है। प्राकृत साहित्य में आख्यानकमणिकोश में रोहिणी अध्ययन में रोहिणी की कथा आती है, जिसमें सेठ के विदेश चले जाने पर राजा द्वारा सेठाणी पर आसक्त होना, तोता एवं बिलाव द्वारा उपदेशित कर शील एवं संयम की रक्षा करना बताया गया है। प्राकृत-कथा-संग्रह में भी जयलक्ष्मी देवी एवं सुंदरी देवी का कथानक शील महात्म्य का उदाहरण है।११ शील-रक्षा के रूप में प्रभावती एवं मदनविनोद की कथा है जिसमें सेठ के विदेश चले जाने पर प्रभावती पर-पुरुष में आसक्त हो जाती है। कामुक प्रभावती को सारिका ने रोक लिया एवं शुक ने तो उसे ७० कहानियां सुनाकर उसके शील की रक्षा की।१२ इसी प्रकार १६ सतियों के कथानक शील-रक्षा के अनुपम उदाहरण हैं। शील-संयम के साथ-साथ दान की भी अपनी महत्ता है। ज्ञाताधर्मकथा में दान के रूप में द्रौपदी के पूर्व भव रूप में नामश्री की कथा है जिसमें कंजूसी के कारण साधुओं को वह कटुक तुम्बा का आहार दे देती है। जिसे वह साधु जमीन पर डालने के बजाय स्वयं खाकर अपने प्राणों की आहुति दे देता है किन्तु अन्य छोटे जीवों को बचाता है, नहीं तो कितने ही कीड़े-मकोड़े मर जाते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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