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________________ आवश्यकसूत्र का स्रोत एवं वैशिष्ट्य : ३५ कर अंतर्दृष्टि में प्रतिष्ठित होना है। यहाँ पर स्वाभाविक जिज्ञासा समुत्पन्न होती है कि वह साधना-पद्धति क्या है? उसका स्वरूप क्या है? प्रस्तुत जिज्ञासा के निवारणार्थ आवश्यकसूत्र में निरूपित साधना-पद्धति सामने प्रस्तुत होती है। आवश्यकसूत्र के छ: अंगों-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान का क्रम व इसमें अन्तर्निहित साधना-विधि का निरूपण वैज्ञानिक पद्धति से हुआ है, जिस पर गमन कर साधक अपने साध्य (समत्व) को सरल रूप से प्राप्त कर सकता है। साथ ही इसमें ऐहिक मूल्यों के साथ-साथ आध्यात्मिक मूल्यों - एकता, अहिंसा, समभाव, नम्रता, प्रभृति सद्गुणों - का निरूपण हुआ है, जिसका अनुगमन कर मानव अपने समस्त संघर्षों से निवृत्ति पा सकता है। साधक के अन्तर्मानस में समत्व रूपी आदर्श देदीप्यमान होने पर समभाव, अहिंसा, विनय प्रभृति सद्गुणों की सरिता का स्वत: प्रवाहन होने लगता है। समत्वद्रष्टा सभी प्राणियों को स्वयं में और स्वयं को सभी में देखता है। उसकी जीवन दृष्टि 'जीओ और जीने दो' की होती है और उसी का वह पालन करता है। एतदर्थ जैन-धर्म में आवश्यकसूत्र के पाठ को चतुर्विध संघ हेतु अनिवार्य रूप से समाचरणीय बनाया गया है। आवश्यकसूत्र की प्राचीनता, प्रामाणिकता, इसके गुण विषयों को और अधिक सरल व सरस रूप से जनमानस के समक्ष प्रकटन हेतु कालांतर में विभिन्न जैनाचार्यों ने प्राकृत, संस्कृत व प्राकृत-संस्कृत मिश्रित अनेक व्याख्या साहित्यों, यथा - नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका आदि का प्रणयन किया है जिससे इसकी महत्ता स्वत: प्रकट हो जाती है। इन व्याख्या साहित्यों में विविध पक्षों, यथा - दार्शनिक, वैज्ञानिक, सामाजिक, राजनैतिक, भौगोलिक, ज्योतिष, आर्थिक प्रभृति - का सम्यक रूप से यथार्थ व सजीव निरूपण हुआ है। अन्यान्य जैन ग्रन्थों में आवश्यकसूत्र के अध्ययनों का प्राप्त होना इसकी प्राचीनता व प्रमाणिकता को प्रकट करता है। आधुनिक युग में अन्यान्य प्रकाशनों द्वारा आवश्यकसूत्र व इसके व्याख्या साहित्यों का प्रकाशन, अनेकानेक जैन विद्वजनों द्वारा विभिन्न भाषाओं में अनुवाद और व्याख्या करना इसके महत्त्व को प्रकट करता है। उक्त समस्त विवेच्य विषयों का पुनरावलोकन करने से यह निष्कर्ष नि:सृत होता है कि जैनागमों में आवश्यकसूत्र को इसकी सामग्री - वैविध्य के कारण विशिष्ट स्थान प्राप्त है। आवश्यकसूत्र में प्रतिपादित षडावश्यक समसामयिक रूप से पूर्णत: प्रासंगिक है। सन्दर्भ: १. अनुयोगद्वार चूर्णि, पृ० १४. २. अनुयोगद्वार मलधारी हेमचन्द्रकृत टीका, पृ० २८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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