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________________ ३४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४ भद्रबाहुनियुक्ति एवं मलयगिरिवृत्ति के साथ आगमोदय समिति, बम्बई से प्रकाशित हुआ, सन् १९३२ में द्वितीय भाग तथा सन् १९३६ में तृतीय भाग के साथ आवश्यकसूत्र भद्रबाहुनियुक्ति एवं मलयगिरिवृत्ति देवचन्द लाल भाई जैन पुस्तकोद्वार, सूरत से प्रकाशित हुआ। सन् १९३६ में आवश्यक नमिसार वृत्ति विजयदानसूरीश्वर ग्रन्थमाला, बम्बई से प्रकाशित हुआ। सन् १९३९ में एवं १९४१ में भद्रबाहुकृत आवश्यकनियुक्ति की माणिक्य शेखरकृत दीपिका विजयदानसूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला, सूरत से प्रकाशित हुई। सन् १९५४ में फूलचन्दजी ने आवश्यकसूत्र का मूलपाठ गुडगांव छावनी से सुत्तागमें के अन्तर्गत करवाया। सन् १९५८ में पूज्य घासीलाल जी महाराज कृत आवश्यकसूत्र का संस्कृत व्याख्या, हिन्दी व गुजराती अनुवाद सहित जैनशास्त्रोद्धार समिति, राजकोट ने प्रकाशित किया। सन् १९६६ में विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञवृत्ति सहित लालभाई दलपतभाई, भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर से तीन भागों में प्रकाशित हुआ। सन् १९६६ में ही विशेषावश्यकभाष्य विवरण(कोट्याचार्य कृत) का प्रकाशन ऋषभदेवजी केसरीमल जी प्रचारक संस्था, रतलाम से प्रकाशित हुआ। आवश्यकसूत्र का सन् १९७७ में आगम प्रभावक मुनि पुण्य विजयजी महाराज जैनागम ग्रन्थमाला के अन्तर्गत 'दसवेयालियसुत्तं उत्तरज्झयणाई आवस्सयसुतं' नामक शीर्षक से श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित हुआ। सन् १९८४ में आवश्यकसूत्र का मूलपाठ सैलाना से 'अंग पविट्ठ सुत्तणि' में प्रकाशित हुआ। सन् १९८५ में भी आवश्यकसूत्र का मूलपाठ हिन्दी विवेचन सहित श्री आगम प्रकाशन-समिति व्यावर, राजस्थान से प्रकाशित हुआ। आवश्यकसूत्र के समग्र पक्षों का गहन अवलोकन करने पर यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि इसका जैनागम साहित्य एवं मानव जीवन के सर्वांगीण विकासार्थ तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित साधना-पद्धति में प्रभूत महात्म्य है। ज्ञातव्य समस्त परम्पराओं में आचार व इसके अन्तर्गत जिन मूल्यों की प्रस्थापना हुई है, उनका एक मात्र उद्देश्य उस जीवनप्रणाली का प्रगटन करना रहा है, जिससे नैतिक जीवन के लक्ष्य की सम्प्राप्ति हो सके, जिसके द्वारा एक ऐसा मानव समाज सृजित हो जो अनेकविध संघर्षों, यथा-आन्तरिक मनोवृत्तियों का संघर्ष, आन्तरिक इच्छाओं और उनकी पूर्ति को बाह्य प्रयासों का संघर्ष तथा बाह्य समाजगत एवं राष्ट्रगत संघर्ष - से मुक्त हो। यद्यपि उक्त संघर्ष मानव द्वारा प्रसूत नहीं होते, तथापि उसे प्रभावित करते हैं। वस्तुत: 'समत्व' ही जीवन का आदर्श/ सार है और जब मानव जीवन में समग्र विषमताओं/संघर्षों के उत्स राग-द्वेष का प्रादुर्भाव होता है तो यह समत्व अपने स्वभाविक केन्द्र से विचलित हो जाता है। परिणास्वरूप मनुष्य अपनी स्वभावदशा का परित्याग कर विभावदशा को प्राप्त होता है। वस्तुत: साधना विभावावस्था से स्वभावावस्था की ओर गमन करना है। अर्थात् बाह्य दृष्टि का परित्याग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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