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________________ कर्म-साहित्य में तीर्थङ्कर : १९ अधिक प्रतिपादित हैं, यथा-सिद्ध, स्थविर एवं तपस्वी की भक्ति तथा नये ज्ञान का ग्रहण। इन चार कारणों के अतिरिक्त न्यूनाधिक रूप से समानता है। तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ आचार्य की भक्ति का उल्लेख है वहाँ ज्ञाताधर्मकथा में गुरु की भक्ति का उल्लेख है। दोनों ग्रन्थों में प्रतिपादित ये बोल भक्ति, श्रद्धा एवं मोक्षरुचि वाले सम्यग्दर्शनी मनुष्य को ही तीर्थङ्कर प्रकृति के अर्जन का पात्र मानते हैं। आवश्यकनियुक्ति में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्यगति का जीव शुभ लेश्या वाला होकर इन बीस बोलों में से किसी का भी सेवन करता है तो वह तीर्थङ्कर नामकर्म का उपार्जन करता है।१५ कर्म-सिद्धान्त के अनुसार भी जो सम्यग्दर्शन की अवस्था वाला मनुष्य है, वही तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ करता है। अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर नामक आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक तीर्थङ्कर प्रकृति (जिननाम) का बन्ध होता है।१६ इस प्रकृति का उदय तेरहवें सयोगी केवली एवं चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान में होता है। केवलज्ञान की प्राप्ति के साथ ही तीर्थङ्कर नामकर्म का उदय प्रारम्भ हो जाता है, जो चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है। तीर्थङ्कर प्रकृति की उदीरणा होना भी सम्भव है। यह उदीरणा मात्र १३वें गुणस्थान में होती है। सत्ता की दृष्टि से विचार किया जाये, तो इस प्रकृति की सत्ता प्राय: चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक रहती है,१७ किन्तु एक अपवाद के रूप में बद्धनरकायु की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त के लिए मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान में भी तीर्थङ्कर प्रकृति की सत्ता पायी जाती है।१८ प्रश्न यह होता है कि तीर्थङ्कर प्रकृति किस प्रकार के सम्यग्दर्शन में बँधना प्रारम्भ होती है? सम्यग्दर्शन के मुख्यत: तीन प्रकार हैं - क्षायोपशमिक, क्षायिक एवं औपशमिका कर्मसिद्धान्त के अनुसार इन तीनों ही प्रकार के सम्यक्त्व में तीर्थङ्कर प्रकृति का बंध सम्भव है। गोम्मटसार 'कर्मकाण्ड' में कहा गया है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व, द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षयिक सम्यक्त्व की अवस्था में अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर चार गुणस्थानों तक के मनुष्य तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ करते हैं। इसी प्रसंग में एक विशेष बात यह कही गई है कि तीर्थङ्कर केवली अथवा श्रुत केवली के निकट ही कोई तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध प्रारम्भ करता है।१९ तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्धने के सम्बन्ध में और भी अनेक तथ्य हैं, यथा - १. यदि कोई मनुष्य एक बार तीर्थङ्कर प्रकृति को बांधना प्रारम्भ करता है, तो वह निरन्तर ही इसका बंधन करता रहता है।२० यह बंधन उस जीव के देवगति या नरकगति में जाने पर भी जारी रहता है।२१ पुनः मनुष्यगति में आने पर वह केवलज्ञान प्रकट होने के अन्तर्मुहूर्त पूर्व तक इसका बंधन करता रहता है।२२ इसके निरन्तर बंधने के संबंध में दो अपवाद हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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