SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९ / जुलाई-सितम्बर २००४ तीर्थङ्कर की गणना ५४ महापुरुषों में होती है । ५४ महापुरुष हैं - २४ तीर्थङ्कर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव और ९ वासुदेव । इनमें ९ प्रतिवासुदेवों की संख्या मिलाने पर ६३ शलाकापुरुष कहे गए हैं। ११ इनमें तीर्थङ्कर को छोड़कर अन्य किसी महापुरुष की ऐसी कर्म-प्रकृति का उल्लेख नहीं मिलता जिसके कारण उन्हें चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव या प्रतिवासुदेव कहा जा सके। मात्र तीर्थङ्कर ही ऐसे महापुरुष या शलाकापुरुष हैं जिनको तीर्थङ्कर नाम कर्म - प्रकृति का गौरव प्राप्त है। १८ : इस तीर्थङ्कर नाम कर्म के आधार पर चिन्तन किया जाये, तो आगम एवं कर्मविषयक-साहित्य में तीर्थङ्करों के सम्बन्ध में अनेक नये तथ्य उद्घाटित होते हैं। जब यह निश्चित है कि तीर्थङ्कर नामक एक कर्मप्रकृति का उदय होने पर ही कोई केवली तीर्थङ्कर बनता है, तो वह कर्म-प्रकृति किस प्रकार बँधती है ? कौन से जीव बाँधते हैं? उदय में कब आती है ? उदीरणा कब होती है और सत्ता में कहाँ-कहाँ रहती है ? एतद्विषयक चिन्तन आवश्यक है। ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र में मल्लिनाथ के प्रकरण में तीर्थङ्कर नाम गोत्र के उपार्जन हेतु २० बोलों का निरूपण हुआ है । १२ वे बीस बोल हैं - (१-७) अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत, तपस्वी इन सातों के प्रति प्रियता, भक्ति या वात्सल्यता का होना (८) ज्ञान का बारम्बार उपयोग करना (९) दर्शन सम्यक्त्व का विशुद्धि होना (१०) विनय होना (११) आवश्यक क्रियाएँ (सामायिक आदि) करना (१२) शीलव्रतों का निरतिचार पालन करना (१३) क्षण-लव प्रमाण काल में संवेग (तथा भावना एवं ध्यान) का सेवन करना (१४) तप करना (१५) त्याग - मुनियों को दान देना (१६) अपूर्व अर्थात् नवीन ज्ञान ग्रहण करना (१७) समाधि - गुरु आदि को साता उपजाना (१८) वैयावृत्त्य करना (१९) श्रुत की भक्ति करना और (२०) प्रवचन की प्रभावना करना। ये सभी २० बोल सम्यग्दर्शनी मनुष्य में सम्भव हैं। जब उसमें निर्मलता आती है तब इन २० कारणों या इनमें से किसी के भी बार-बार आराधन से तीर्थङ्कर प्रकृति का उपार्जन हो सकता है। तत्त्वार्थसूत्र में तीर्थङ्कर नाम के उपार्जन हेतु १६ कारणों का ही निरूपण है। १३ वे १६ कारण हैं - (१) दर्शनविशुद्धि (मोक्षमार्ग में रुचि) (२) विनय सम्पन्नता (३) शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन (४) ज्ञान में सतत उपयोग (५) सतत संवेग (६) शक्ति के अनुसार तप (८) साधुओं की समाधि में योगदान (९) वैयावृत्त (१०) अरिहन्त भक्ति (११) आचार्य भक्ति (१२) बहुश्रुत (१३) प्रवचन भक्ति (१४) आवश्यक क्रियाओं में संलग्नता (१५) मोक्षमार्ग (१६) प्रवचन वात्सल्य। तत्त्वार्थसूत्र में निरूपित इन १६ कारणों को पृथक्-पृथक् रूपेण भी सम्यग्भावित किया जाये तो तीर्थङ्कर प्रकृति का उपार्जन सम्भव है। इन्हें तीर्थङ्कर प्रकृति के आस्रव का कारण कहा गया है । १४ ज्ञाताधर्मकथा में तत्त्वार्थसूत्र से चार कारण www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy