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________________ जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त एवं उसके समान्तर भारतीय दर्शन में प्रचलित अन्य सिद्धान्त 3 ८५ ब्रह्मवाद ब्रह्मवाद में ब्रह्म ही जगत् के चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त आदि समस्त पदार्थों का उपादान कारण होता है । ब्रह्मसूत्र का 'जन्माद्यस्ययतः १० सूत्र इसी ब्रह्मवाद का पोषक है। किन्तु तर्क के कसौटी पर देखा जाय तो एक ही ब्रह्मतत्त्व विभिन्न जड़चेतन पदार्थों के परिणमन में उपादान कारण कैसे बन सकता है, इसका कोई युक्तियुक्त समाधान नहीं मिल पाता। ब्रह्मवाद में जगत् की परिकल्पना के मूल में माया को माना जाता है और वहां मायोपहित ब्रह्म ही जगत् का कारण है। ब्रह्मवाद एकात्मवाद भी . मानता है । किन्तु आत्मा को यदि एक मान लिया जाय तो जगत् में अनन्त - अनन्त जीव जो पृथक्-पृथक् पर्यायें धारण करते हैं, विभिन्न अनुपात में सुख-दुःख का परिभोग करते हैं, उनका क्या होगा ? अतः यह मत युक्तियुक्त नहीं है। ईश्वरवाद पुरुषवाद का दूसरा रूप ईश्वरवाद है । ईश्वरवाद का फलितार्थ ईश्वरकर्तृत्ववाद है अर्थात् इस विश्व में व्याप्त समस्त विचित्रताओं का कर्ता ईश्वर है । उसकी इच्छा ही जगत् की सृष्टि में कारण है। ईश्वर एक, अद्वितीय, सर्वव्यापी, स्वतन्त्र, सर्वज्ञ और नित्य है । ईश्वरवाद के पूर्व पक्ष को प्रस्तुत करते हुए गोम्मटसार १ में कहा गया है कि आत्मा अनाथ है, उसका सुख-दुःख, स्वर्ग-नरक - गमन आदि सब ईश्वर के हाथ में है। ईश्वर कर्तृत्व के सम्बन्ध में युक्ति दी जाती है कि जड़-चेतन रूप जगत् का कोई न कोई पुरुष विशेष कर्ता है क्योंकि पृथ्वी वृक्ष आदि पदार्थ कार्य हैं और कार्य होने से किसी न किसी बुद्धिमान कर्ता द्वारा निर्मित हैं जैसे - घट आदि का कर्ता कुम्भकार | वह बुद्धिमान कर्ता ही ईश्वर है । न्यायकुसुमांजलि १३ में ईश्वर द्वारा सृष्टिकर्तृत्व के सात कारण बताये गये हैं - १. कार्य कारण भाव २. आयोजन, ३. आधार ४. निर्माण कार्यों का शिक्षक ५. श्रुत रचयिता ६. वेदवाक्य कर्ता और ज्ञाता | जैन दर्शन का आक्षेप है कि यदि ईश्वर को सर्वगत माना जायेगा तो वह अकेला ही एक शरीर से तीनों लोकों को व्याप्त हो जायेगा फिर दूसरे बनने वाले चेतन जड़ पदार्थों को स्थान ही नहीं रहेगा। यदि उसे ज्ञान की अपेक्षा सर्वगत माना जोयगा तो वह वेद वाक्य से विरुद्ध होगा। अक्रियावाद बौद्ध पटक में तथागत बुद्ध के युग के छः दर्शनिकों का तथा उनके मत का वर्णन किया गया है। उनमें अक्रियावाद भी एक है । त्रिपिटक में अक्रियावादी पूरणकश्यप के मत का वर्णन करते हुए कहा गया है कि किसी ने कुछ भी किया हो, अथवा कराया हो, त्रास दिया हो अथवा दिलवाया हो, झूठ बोला हो तो भी उसे पाप नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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