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________________ ८४ श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ / जनवरी - जून २००४ की अनुपस्थिति में वहीं स्वतः बिखर जाती है। इसकी प्रक्रिया के विषय में भूतचैतन्यवादी बताते हैं कि जिस प्रकार महुआ, गुड़ आदि के विशेष सम्मिश्रण से शराब बन जाती है, चूना + कत्था + सुपारी तथा पान के संयोग से लाल रंग उत्पन्न हो जाता है उसी प्रकार भूतचतुष्टय के संयोग से शरीर या सम्बद्ध चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है । भूतवादी यह मानते है कि आत्मा या पुनर्जन्म कुछ नहीं है। जीवन की धारा गर्भ से लेकर मरणपर्यन्त चलती रहती है। मरणकाल में शरीर यंत्र में विकृति आ जाने से जीवन शक्ति समाप्त हो जाती है। इसके बाद शरीर के जल जाने पर न तो कहीं आना है, न कहीं जाना है । सूत्रकृतांग' में तज्जीवतच्छरीरवाद के रूप में इस विचारधारा का वर्णन मिलता है। डार्विन का विकासवाद भी इन्हीं भूतचैतन्यवादियों के सिद्धान्त से मिलता जुलता सिद्धान्त है या उसी का परिष्कृत रूप है। इसके अनुसार चेतन तत्त्व का विकास (जड़ और मूर्तिक) तत्त्वों से ही माना जाता है। इस भौतिकवाद की मान्यता है कि अमीबा, घोंघा आदि बिना रीढ़ के प्राणियों से रीढ़दार पशुओं और मनुष्यों की उत्पत्ति हुई है । जड़ तत्त्वों से भिन्न कोई चेतनतत्त्व (आत्मतत्त्व) नहीं है। जड़तत्त्वों के विकास और ह्रास के साथ ही चैतन्यतत्त्व का विकास और ह्रास हो जाता है । किन्तु इस बात का निराकरण इसी तथ्य से हो जाता है कि जड़ और मूर्तिक भूतों से चेतन और अमूर्तिक आत्मा की उत्पत्ति किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। फिर भूतवाद कर्मवाद के सिद्धान्त से सर्वथा विपरीत है। इस भौतिक शरीरयन्त्र में इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, ज्ञान, जिजीविषा, संकल्प वृत्ति, भावना, अहिंसादि के आचरण की वृत्ति - 'दया' क्षमा, आदि कोमल भावनाओं का उद्भव, कार्य-कारण का निश्चय इत्यादि बातें जो पाई जाती हैं, वे अकस्मात कैसे आ जाती हैं ?, परलोक या अन्यलोक मानने पर तो संसार में अव्यवस्था और आराजकता हो जायेगी । फिर कोई क्यों अपने पूर्वकृत कर्मों का क्षय करने तथा अहिंसा, विश्व- मैत्री, क्षमा, समता, आदि की साधना करेगा। अतः भूतवाद का सिद्धान्त युक्तियुक्त नहीं है। ५. पुरुषवाद पुरुषवाद के अनुसार पुरुष ही इस जगत् का कर्ता, धर्ता और हर्ता है। प्रलयकाल तक उस पुरुष की ज्ञानादि शक्तियों का लोप नहीं होता। प्रमेयकमलमार्तण्ड में इसे समझाते हुए कहा गया कि जैसे मकड़ी जाले के लिए, चन्द्रकान्ता मणि जल के लिए एवं वटवृक्ष प्ररोहों के लिए कारण होता है उसी प्रकार पुरुष भी जगत् के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और लय का कारण है। पुरुषवाद में दो विचारधाराएं निहित हैंब्रह्मवाद तथा ईश्वरवाद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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