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________________ जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त एवं उसके समान्तर भारतीय दर्शन में प्रचलित अन्य सिद्धान्त : ८३ है, उसमें मनुष्य की धारणा योजना या कर्तृत्व क्षमता की गणना काम नहीं आती, न ही उसमें काल, स्वभाव या पुरुषार्थ को कोई अवकाश है। नियति का दूसरा अर्थ है इस जड़-चेतनमय विश्व में प्रकृति के नियम ( कर्मग्रन्थ भाग १ प्रस्तावना' । इस नियम के अनुसार जगत् के सभी कार्य नियति के अधीन होते हैं। कोयल काली क्यों, खरगोश सफेद क्यों, सूर्य का पूर्व में उगना, इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि विश्व प्रकृति के अटल नियम के अनुसार जो नियत है वही होता है, अन्यथा नहीं। इस वाद का वर्णन सूत्रकृतांग व्याख्याप्रज्ञप्ति', उपासकदशांग आदि जैनागमों में हुआ है। बौद्ध त्रिपिटक दीघनिकाय ' के 'सामञ्ञयफलसुत्त' में मंखलि गोशालक के नियतिवाद का विवरण मिलता है। उसके अनुसार पुरुष के सामर्थ्य के बल पर किसी पदार्थ की सत्ता नहीं है ....... सभी सत्व, सभी प्राणी, सभी भूत, सभी जीव स्वरूप हैं, दुर्बल हैं, बलवीर्य रहित हैं। उसमें नियति, जाति, वैशिष्ट्य एवं स्वभाव के कारण परिवर्तन होता है।. चौरासी लाख योनि - महाचक्र में घूमने के बाद बुद्धिमान और मूर्ख दोनों के दुःख का नाश हो जाता है। नियतिवाद का आध्यात्मिक रूप नियतिवाद का एक आध्यात्मिक रूप वर्तमान में आविष्कृत हुआ है। इस सिद्धान्त का नाम क्रमबद्ध पर्याय है। इसके अनुसार प्रत्येक द्रव्य की प्रति समय की पर्याय सुनिश्चित है। जिस समय जो पर्याय होती है, वह अपने नियत स्वभाव के कारण होती है, उसमें प्रयत्न निरर्थक है। उपादान शक्ति से ही वह पर्याय प्रकट हो जाती है। निमित्त वहाँ स्वयमेव उपस्थित हो जाता है, उसको मिलाने की आवश्यकता नहीं। क्रमबद्ध पर्याय का यह मत उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि इसमें पुरुषार्थ और शुभकर्मों का कोई अर्थ ही नहीं रहता । भगवान् महावीर की दृष्टि में नियतिवाद, कर्मवाद और पुरुषार्थवाद पर कुठाराघात करनेवाला है। उन्हें भी अपने जीवन में नियतिवादियों से विवाद करना पड़ा था। आजीवकों और जैनों में बहुत सी बातें समान थीं पर मुख्य भेद नियतिवाद और पुरुषार्थवाद का था । ४. महाभूतवाद महाभूतवाद के अनुसार समग्र अस्तित्व के मूल में पंचमहाभूतों की सत्ता रही है। संसार उनके वैविध्यमय संयोगों का परिणाम है। वह सृष्टि के सभी पदार्थों की उत्पत्ति पृथ्वी, जल, तेज, वायु आदि चार भूतों के विशिष्ट संयोग से मानता है । जिन्हें जैन कर्मवादी आत्मतत्त्व या चेतन तत्त्व कहते हैं। वह इन्हीं चार भूतों की ही विशिष्ट परिणति है जो विशिष्ट प्रकार की परिस्थिति में उत्पन्न होती है और उन परिस्थितियों For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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