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________________ ८२ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४ २. स्वभाववाद स्वभाववाद के अनुसार संसार में जो कुछ भी घटित होगा या होता है, उसका आधार वस्तुओं का अपना-अपना स्वभाव है। इसमें काल, नियति, कर्म आदि क्या कर सकते हैं? आम की गुठली में ही आम का वृक्ष बनने का स्वभाव है, नीम की निम्बोली में नहीं। चन्द्रमा शीतल है- क्या काल या नियति इन्हें ठंडा या गर्म कर सकते हैं? अत: जिसका जैसा स्वभाव होता है वैसा ही उसका परिणाम या परिपाक होता है? हवा का चलना, पर्वत का स्थिर रहना, नदी का बहना उनके स्वभाव के कारण है? गोम्मटसार, बुद्धचरित और सूत्रकृतांगटीका में कहा गया है कि बबूल आदि के कांटों को कौन नुकीला करता है, मयूर, मृग आदि को कौन चित्रित करता है? इन सबका एक मात्र कारण स्वभाव है। अत: समस्त घटना-चक्र का कारण स्वभाव ही है। कालादि के मौजूद रहने पर भी स्वभाव के बिना अभीष्ट कार्य नहीं होता। कोई युवा स्त्री यदि बन्ध्या है तो सम्पूर्ण शारीरिक स्वस्थता के बावजूद भी वह सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकती क्योंकि सन्तान रहित रहना बन्ध्या का स्वभाव है। विशेषावश्यक भाष्य, सांख्यकारिका पर माठरवृत्ति एवं न्यायकुसुमांजलि आदि ग्रन्थों में स्वभाववाद का सयुक्तिक निराकरण किया गया है। . यदृच्छावाद यदृच्छावाद के अनुसार किसी भी घटना का कोई नियत हेतु या कारण नहीं होता, वे अहेतुक और अकस्मात होती हैं। समस्त घटनाएं मात्र संयोग (Chance) का परिणाम हैं। यह वाद हेतु के स्थान पर संयोग को प्रमुखता देता है। इसमें कारणकार्याभाव आदि के विषय में कोई भी विचार नहीं किया जाता। यदृच्छावाद को सरल शब्दों में अकारणवाद, अनिमित्तवाद, अहेतुवाद, अकस्मातवाद या अटकलपच्चूवाद भी कहते हैं। कुछ लोग स्वभाववाद और यदृच्छावाद को एक ही मानते हैं किन्तु दोनों में मौलिक अन्तर यह है कि स्वभाववादी स्वभाव को कारण रूप मानते हैं जबकि यदृच्छावादी कारण की सत्ता से ही इनकार करते हैं। ३. नियतिवाद नियतिवाद का अर्थ है भवितव्यता या होनहार। नियति के इस अर्थ के अनुसार जिसका जिस समय में जहाँ जो होना होता है, वह होता ही है, जो नहीं होना होता वह उस समय नहीं होता। मनुष्यों की नियति के प्रबल आश्रय से जो भी शुभ या अशुभ प्राप्त होना है, वह अवश्य ही प्राप्त होगा। प्राणी कितना भी प्रयत्न कर ले परन्तु जो नहीं होना होता है, वह नहीं होता। जो भवितव्य है अर्थात् होना है उसे कोई नहीं मिटा सकता। अतः नियतिवाद के अनुसार जो होना होता है, वह अवश्य होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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