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________________ जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त एवं उसके समान्तर भारतीय दर्शन में प्रचलित अन्य सिद्धान्त : ८१ की यह परम्परा अनादिकाल से चलती आ रही है। इन आधारभूत मान्यताओं के फलितार्थ निम्नलिखित हैं - १. व्यक्ति का वर्तमान व्यक्तित्व उसके भावी व्यक्तित्व का निर्माता है। २. नैतिक दृष्टि से जो क्रियाएं (शुभाशुभ) व्यक्ति ने की हैं वही उनके परिणामों का भोक्ता भी है। ३. इन परिणामों के भोग के लिए इस शरीर को छोड़ने के पश्चात् दूसरा शरीर ग्रहण करने वाला कोई स्थायी तत्त्व होना चाहिए जो आत्मा है। अत: आत्मा की अमरता की धारणा कर्म सिद्धान्त की अनिवार्य फलश्रुति है। ४. कर्म सिद्धान्त चेतन आत्मतत्त्व को प्रभावित करने वाली प्रत्येक घटना एवं अनुभूति के कारणों की खोज बाह्य जगत् में नहीं करता वह स्वयं चेतना में ही उसके कारणों की खोज करता है। - कर्म सिद्धान्त के विकास क्रम को देखें तो वैदिक परम्परा की प्रारम्भिक अवस्था में उपनिषद् काल तक कोई ठोस कर्म सिद्धान्त नहीं बन पाया था यद्यपि वैदिक साहित्य में 'ऋत्' के रूप में उसका अस्पष्ट निर्देश अवश्य उपलब्ध है। कर्म कारण है, ऐसा वाद भी उपनिषदों का सर्वसम्मतवाद हो यह भी नहीं कहा जा सकता। वैदिक साहित्य में 'ऋत्' के नियम को स्वीकार किया गया है लेकिन उसकी विस्तृत व्याख्या उसमें उपलब्ध नहीं है। उस समय के विचारकों ने वैचित्रमय सृष्टि एवं वैयक्तिक भिन्नताओं के कारण के रूप में विभिन्न धाराओं का प्रतिपादन किया जो निम्नवत् हैं - १. कालवाद यह सिद्धान्त सृष्टि वैचित्र्य, वैयक्तिक भिन्नताओं, व्यक्ति की सुख-दुःखात्मक अनुभूतियों का कारण 'काल' को मानता है। अथर्ववेद में तीन सूक्तों में काल पर विशेष चर्चा की गयी है जिसमें बताया गया है कि काल ने पृथ्वी को उत्पन्न किया, काल के आधार पर ही सूर्य तपता है और काल के आधार पर ही समस्त जीव रहते हैं। काल ही ईश्वर है। महाभारत में भी उल्लेख मिलता है कि काल ही समस्त प्राणियों का सृजन और संहार करता है। गोम्मटसार में काल को सबकी उत्पत्ति, विनाश और सोते हुए प्राणियों को जगाने का कारण बताया गया है। कालवाद के अनुसार जिसका जो समय या काल होता है, उसी समय वह घटित होता है। समय आने पर ही अमुक वस्तु पैदा होती है और समय पूरा होते ही नष्ट हो जाती है। जैसे समय से व्यक्ति के शरीर में परिवर्तन, ऋतु परिवर्तन, वृक्षों का फलना, सूर्य-चन्द्रग्रहण आदि। बिना काल के परिपक्व हये स्वभाव, पुरुषार्थ, नियति आदि भी कुछ नहीं कर सकते। ऐसा प्राय: देख जाता है कि कई बार प्रयत्न करने पर भी कार्य सिद्धि नहीं होती और उसका उचित समय आने पर स्वयमेव हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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