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________________ सामान्य केवली और अर्हन्त पद : एक समीक्षा : ५५ सर्वदर्शी के रूप में किया जाता है वहां वहां आत्मिक ऐश्वर्य को प्राप्त सभी केवल ज्ञानी के रूप में 'अरिहंत' शब्द को ग्रहण किया जाना चाहिये। सामान्य केवली की अरिहंत में ही गणना है इसका एक कारण यह भी है कि यदि नमस्कार मंत्र में केवली का परिहार कर अरिहंत से तीर्थंकर को ही नमस्कार करना अभिप्रेत होता, तो ‘णमो तित्थयराणं' भी प्रथम पद हो सकता था, किंतु वैसा न होकर ‘णमो अरिहंताणं' पद होने से यही आशय ध्वनित होता है कि जितनी भी राग-द्वेष विजेता सशरीरी आत्माएँ हैं, उन सबको मेरा नमस्कार है, चाहे फिर वे किसी भी नाम से, किसी भी शब्द से पुकारी जाती हों। आचार्य हरिभद्र ने वीतराग भगवान् की स्तुति करते हुए इसी आशय को अपने समक्ष रखा था। उन्होंने कहा है - भवंबीजांकुर जनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरौ वा जिनो वा नमस्तस्मै।। अर्थात् भव-बीज का अंकुर राग-द्वेषादि जिसके भी क्षय हो गये हों, वह आत्मा ब्रह्मा, विष्णु, हरि या 'जिन' किसी भी नाम से पुकारी जाती हो, उन सबको मेरा नमस्कार है। तीर्थंकर के साथ अरहंत शब्द के प्रयोग का हेतु : अब रहा प्रश्न, कि अरहंत शब्द का प्रयोग आगमों में स्थान-स्थान पर 'तीर्थंकर' के अर्थ में या तीर्थंकर के साथ प्रयुक्त हुआ है, उनके साथ 'केवली' शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया गया। इसका समाधान यह प्रतीत होता है, कि वे सातिशय केवली हैं, उन्हें विशिष्टता प्रदान करने के लिये अरहन्त शब्द से संबोधित किया जाना संभव है। तीर्थंकर को विशेष रूप से 'अरहंत' विशेषण लगाकर उनका 'अपायापगम अतिशय' भी सूचित किया जाता है, जो कि तत्कालीन अन्य तीर्थंकरों में देखने को नहीं मिलता है। जैन और बौद्ध-साहित्य के अनशीलन से यह स्पष्ट होता है, कि उस समय 'धर्मतीर्थ' के प्रवर्तक को 'तीर्थंकर' कहा जाता था। भगवान् बुद्ध के समय भारतवर्ष में श्रमणों के ६३ सम्प्रदाय विद्यमान थे, उनमें से छह सम्प्रदाय के धर्म-प्रवर्तक अपने को ‘तीर्थकर' कहते थे, उनके नाम हैं - (१) पूरण काश्यप (२) मंखलि गोशाल (३) अजित केस कम्बल (४) प्रकुध कात्यायन (५) निग्गंठ नातुपत्त (६) संजय वेलट्ठिपुत्त इन छह में 'निग्गंठ नातपुत्त', भगवान् महावीर के लिये प्रयुक्त होता था, जो धर्मतीर्थ के प्रवर्तक होने से 'तीर्थंकर' तो थे ही, साथ में 'जिन' एवं अर्हत्' भी थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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