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________________ ५४ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४ (२) अरहोन्तर :- सर्वज्ञ होने से एकान्त और अन्तर (मध्य) की कोई भी बात जिनसे छिपी हुई नहीं है, वे प्रत्यक्षदृष्टा पुरुष। (३) अरथान्त :- रथ शब्द समस्त प्रकार के परिग्रह का सूचक है। जो समस्त प्रकार के परिग्रह से और अन्त (मृत्यु) से रहित हैं। (४) अरहन्त :- आसक्ति से रहित अर्थात् राग, द्वेष और अज्ञान का सर्वथा 'अन्त' - नाश करने वाले। (५) अरहयत् :- तीव्र राग के कारणभूत मनोहर विषयों का संसर्ग होने पर भी जो परम वीतराग होने से किञ्चित् भी रागभाव को प्राप्त नहीं होते, वे महापुरुष 'अरहयत्' कहलाते हैं। (६) अरिहन्त :- अष्टविध कर्म - शत्रुओं का विशिष्ट साधना द्वारा क्षय करने वाले। (७) अरुहन्त :- 'रुह' अर्थात् कर्म रूपी अंकुर को जलाकर जन्म-मरण की परम्परा को सर्वथा विनष्ट करने के कारण उन्हें 'अरुहन्त' कहते हैं। अरिहन्त के दो प्रकार : उक्त सभी परिभाषाओं में केवल एक 'अर्हन्त' शब्द की परिभाषा से ही 'तीर्थंकर' का बोध होता है। किंतु इसके अतिरिक्त अन्य सभी परिभाषाएँ सामान्य केवली एवं अरिहंत (तीर्थंकर) में समान रूप से घटित होती हैं। 'अर्हन्त' शब्द को व्याख्यायित करते हुए पंचमंगलमहाश्रुतस्कन्ध में कहा है - ‘अतिशय पूजार्हत्वाद्वार्हन्तः' ___ अर्थात् अतिशय पूजा के योग्य होने से वे 'अर्हन्त' कहे जाते हैं। यहाँ अतिशय पूजा के महत्त्व से 'तीर्थंकर' का व्यपदेश किया गया है। जैन-ग्रन्थों में इसका भी स्पष्टीकरण इस प्रकार से किया गया है - अर्हन्त दो प्रकार के हैं - तीर्थंकर एवं सामान्य केवली। विशेष पुण्य सहित अर्हन्त जिनके कि कल्याणक महोत्सव मनाये जाते हैं, वे 'तीर्थंकर' हैं एवं जिनके कल्याणक महोत्सव नहीं मनाये जाते, जो अष्टमहाप्रतिहार्यादि से रहित होते हैं. वे सर्व सामान्य अर्हन्त कहलाते हैं। केवलज्ञान अर्थात् सर्वज्ञ होने के कारण इन्हें केवली' भी कहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि सामान्य केवली भी अरिहंत ही होते हैं, केवल उनमें बाह्य विभूति नहीं होती। आगमकारों ने सामान्य केवली के साथ अरिहंत' विशेषण प्रयुक्त नहीं किया, इस एक तर्क से उन्हें पंचम पद में प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता, वरन् जहाँ-जहाँ 'अर्हन्' शब्द सातिशय पूजा के योग्य अर्थ में ग्रहण किया जाता है, वहाँ-वहाँ अरह से अभिप्राय 'तीर्थंकर' समझना चाहिये और जहाँ-जहाँ वीतराग, जिन, सर्वज्ञ एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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