SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामान्य केवली और अर्हन्त पद : एक समीक्षा : ५३ नहीं । साधु की कोटि में आचार्य और उपाध्याय इन दो पदों का समावेश तो हो सकता है, क्योंकि आचार्य, उपाध्याय एवं साधु तीनों साधक हैं, इनका पारस्परिक अंतर केवल संघकृत उपाधि का है, साधुत्व की अपेक्षा से तीनों समान हैं । ३ तथापि नमस्कार महामंत्र में साधु से उपाध्याय का एवं उपाध्याय से आचार्य का पद उत्तरोत्तर गरिमामय मानकर क्रमश: चतुर्थ एवं तृतीय पद पर स्थान दिया है और पूज्यता एवं नमस्कार की दृष्टि से प्रथम आचार्य, पश्चात् उपाध्याय एवं उसके पश्चात् साधु को नमस्कार किया गया है। किंतु 'केवली' तो गुणों की दृष्टि से भी साधु, उपाध्याय एवं आचार्य इन तीनों से ऊपर हैं। यदि सामान्य केवली की 'साधु' पद में गणना की जायेगी तो उन्हें आचार्य एवं उपाध्याय पद से भी निम्नस्थानीय मानना पड़ेगा, जो कि कथमपि संगत नहीं है। दूसरी बात, तीर्थंकर में जो-जो विशेषताएं सामान्य केवली से अधिक कही गयी हैं, वे गुणों की अपेक्षा से नहीं विभूति की अपेक्षा से कही गई हैं। विभूति उदयभाव है, क्षायिक भाव नहीं । आत्मिक गुणों का प्रकटीकरण सामान्य केवली एवं अरिहंत में समान है। गुणस्थान प्रकरण में अरिहंत तीर्थंकर एवं केवली एक ही (१३वें) गुणस्थान के प्रापक कहे हैं। गुणस्थान में कहीं भी अरिहंत (तीर्थंकर) और केवली का पृथक्पृथक्, गुणस्थान नहीं कहा। चार घाती कर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अंतराय) का क्षय जैसे तीर्थंकरों के हुआ है वैसा ही सामान्य केवली के हुआ है। ऐसा भी नहीं कि एक का ज्ञान अधिक विशुद्ध एवं स्पष्ट है, दूसरे का कम। दोनों का केवलज्ञान, केवलदर्शन संपूर्ण है, स्पष्ट है और एक समान है। चार कर्मों के क्षय से जैसे तीर्थंकर को 'जिन', 'वीतराग' 'सर्वज्ञ' एवं 'सदेह परमात्मा' कहा जाता है | वैसे ही सामान्य केवली को भी 'जिन', 'सर्वज्ञ', 'वीतराग' एवं सदेह परमात्मा ही कहा जाता है। तीर्थंकर और केवली दोनों तद्भव मोक्षगामी हैं। इसके अतिरिक्त ऐसा उल्लेख भी कहीं पढ़ने में नहीं आया कि केवली तीर्थंकर को अपने से बड़ा मानकर उन्हें नमस्कार करते हों। फिर किस अपेक्षा से सामान्य केवली को नमस्कार महामंत्र के प्रथम पद में स्थान न देकर पंचम पद में स्थान दिया जाय। अरिहंत शब्द की विभिन्न व्याख्याएँ : अरिहंत की जितनी भी व्याख्याएँ दिगम्बर, श्वेताम्बर साहित्य में उपलब्ध होती हैं, वे सब 'केवली' के अर्थ में भी घटित होती हैं। आचार्य अभयदेव ने भगवती सूत्र की वृत्ति' में 'अरिहंत' शब्द के संस्कृत में सात रूपान्तर बताए हैं : (१) अर्हन्त :- वे लोकपूज्य पुरुष, जो देवों द्वारा निर्मित अष्ट महाप्रातिहार्य रूप पूजा के योग्य हैं, इन्द्रों द्वारा भी पूजनीय हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy