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________________ श्रमण, वर्ष ५५, अंक १.६ जनवरी-जून २००४ सामान्य केवली और अर्हन्त पद : एक समीक्षा साध्वी विजयश्री 'आर्या' * तुलसी प्रज्ञा, त्रैमासिक, जुलाई १९९१ में साध्वी डॉ० सुरेखा जी का एक शोधपरक लघु निबंध पढ़ने में आया - 'क्या सामान्य केवली के लिए अर्हन्त पद उपयुक्त है? साध्वी जी ने उक्त लेख में आगमों के अनेक उल्लेख देकर विषय को एक चिन्तन का स्वरूप प्रदान किया है। उन्होंने लिखा कि सामान्य केवली के लिये आगमों में कहीं भी 'अर्हन्त' या अरिहंत' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, उन्हें सर्वत्र 'केवली' संज्ञा से ही अभिहित किया है, अत: उनकी 'णमो अरिहंताणं' पद में गणना न कर 'णमो लोए सव्वसाहूणं' पद में गणना की जानी संभव है। यहाँ कुछ बातें विचारणीय हैं। सर्वप्रथम तो यह है कि केवली अरिहंत पद के अधिक निकट हैं, साधु पद के नहीं। भगवतीसत्र की वृत्ति' में आचार्य श्री अभयदेव सूरि ने 'साधु' शब्द के तीन अर्थ किये हैं - १) ज्ञानादि शक्तियों द्वारा जो मोक्ष की साधना करते हैं, वे साधु हैं। २) जो सर्वप्राणियों के प्रति समता भाव धारण करते हैं, किसी पर राग-द्वेष नहीं रखते, निन्दक प्रशंसक के प्रति समताभाव धारण करते हैं, प्राणी-मात्र को आत्मवत् समझते हैं, वे साधु हैं। ३) जो संयम पालन करने वाले भव्य-प्राणियों की मोक्ष-साधना में संहायक बनते हैं, वे साधु कहलाते हैं। दिगम्बर साहित्य में २८ मूलगुण रूप सकल चारित्र का पालन करने वाला 'साधु' की संज्ञा प्राप्त करता है।२ उक्त व्याख्याओं से यह स्पष्ट होता है, कि साधु वह है, जो स्वयं साधना मार्ग में स्थित रहता हुआ समाज में अपना आदर्श स्थापित करता है। यह अर्थ 'केवली' में घटित नहीं होता क्योंकि केवली की साधना संपूर्ण हो चुकी है, वे साधना मार्ग में स्थित नहीं हैं, वरन वे साध्य को प्राप्त कर चुके हैं, अर्थात् परमात्मा बन चुके हैं, इसलिये उन्हें 'देव' की कोटि में रखा जाता है। साधु अर्थात् 'गुरु' की कोटि में *C/o शीला जैन, १३/४०, शक्तिनगर, दिल्ली -११० ००७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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