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________________ ५६ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४ शेष ५ सम्प्रदाय के तीर्थंकर भी विशाल जनमत के धारक थे उन सबके मध्य तीर्थंकर प्रभु महावीर को विशेष विशेषण, जैसे - अरहा, अरहंत, अरिह, अरुह लगाकर संबोधित किये जाने से शेष का परिहार हो जाता है। अनेक स्थानों पर 'जिन' केवली आदि शब्द भी इसी अभिप्राय से जोड़े गये प्रतीत होते हैं। जैसे- चतुर्विंशतिस्तव में २४ तीर्थकर भगवान् के लिये उक्त सभी विशेषण लगाये गये हैं - लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे। अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसं पि केवली।। उक्त स्तव में तीर्थकर के लिये 'जिन', 'अरिहंत' एवं 'केवली' इन तीनों शब्दों का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार शक्र-स्तुति में भी उक्त सभी शब्द हैं - णमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थयराणं......जिणाणं जावयाणं........। सारांश : उक्त सर्व कथनों से यही सिद्ध होता है, कि 'अरिहंत' शब्द सामान्य केवली एवं तीर्थंकर दोनों अर्थों में प्रयुक्त होता है, जैसे 'जिन और केवली' शब्द। इसके अलावा पंच परमेष्ठी मंत्र जो जैनों का सर्वमान्य मंत्र है उसमें भी ‘णमो अरिहंताणं', पद से तीर्थंकर एवं सामान्य केवली का समान रूप से अन्तर्भाव हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं। सन्दर्भ : १. भगवतीसूत्रवृत्ति, (पत्रांक ३). २-३.जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग ४ पृष्ठ ४०२. ४. भगवतीसूत्र वृत्ति ४, (पत्रांक ३). ५. अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग १, पृष्ठ ७५६. ६. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग १. ७. दीघनिकाय, “सामञफलसुत्त", पृष्ठ २१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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