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________________ जैन धर्म में प्रतिपादित षडावश्यक की समीक्षा और इसकी प्रासंगिकता - होते हैं। उन विषमताओं से अपने आपको हटाकर स्व-स्वरूप में रमण करना समता है । समता को ही गीता में योग कहा गया है, जबकि आचार्य हरिभद्र लिखते हैं। " सामायिक की विशुद्धि साधना से जीव घाती कर्मों को नष्टकर केवल ज्ञान को प्राप्त करता है। १३ : ३५ सामायिक के मुख्य भेद हैं- द्रव्य - सामायिक और भाव- सामायिक । सामायिक ग्रहण करने के पूर्व जो विधि-विधान सम्पन्न होते हैं, वह द्रव्य सामायिक है और साधक जब आत्म-भाव में स्थिर रहता है, तो वह भाव - सामायिक कहलाता है। सामायिक में द्रव्य और भाव दोनों की आवश्यकता होती है। सच्ची सामायिक साधना भी वही है जिसमें द्रव्य और भाव दोनों का समावेश हो । आचार्य भद्रबाहु ने भी सामायिक के तीन भेद बताएं हैं - सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक और चारित्रसामायिक । सामायिक की साधना के लिए सम्यक्त्व आवश्यक है। बिना सम्यक्त्व के श्रुत और चारित्र दोनों निर्मल नहीं होते हैं। सर्वप्रथम दृढ़ निष्ठा से विश्वास की शुद्धि होती है। सम्यक्त्व में अंधविश्वास नहीं होता । वहाँ भेदविज्ञान होता है। श्रुत से विचारों की शुद्धि होती है। जब विश्वास और विचार शुद्ध होता है, तब चारित्र शुद्ध होता है। यद्यपि सामायिक जैन साधना की विशुद्ध साधना-पद्धति है, तथापि इस साधना पद्धति की तुलना आंशिक रूप से अन्य धर्मों का साधना पद्धति से की जा सकती है, यथा - बौद्ध और वैदिक परम्परा श्रमण संस्कृति की एक धारा है । इस परम्परा में प्रतिपादित अष्टांगिक मार्ग में सभी के प्रारम्भ में जिस 'सम्यक्' शब्द का प्रयोग हुआ है, यथा- सम्यग्दृष्टि, सम्यक् वाक्, सम्यक् - संकल्प, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक्आजीव, सम्यक् - व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि । बौद्ध साहित्य के मनीषियों के अनुसार, वह 'सम' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि पालि भाषा में जो सम्मा शब्द है, उसके सम और सम्यक् दोनों रूप बनते हैं। यहाँ पर प्रयुक्त सम्यक् शब्द का अर्थ है - राग-द्वेष की वृत्तियों को न्यून करना । जब राग-द्वेष की मात्रा कम होती है, तभी साधक समत्वयोग की ओर अग्रसर होता है और राग-द्वेष से मुक्त होने के पश्चात् ही चित्तवृत्तियाँ समाधि के सन्दर्शन में समर्थ होती हैं। संयुक्त निकाय में तथागत बुद्ध कहते हैं - जिन व्यक्तियों ने धर्मों को वास्तविक रूप में जान लिया है, जो किसी मत, वाद या पक्ष में उलझे नहीं हैं, सम्बुद्ध हैं, समद्रष्टा हैं और विषम परिस्थितियों में भी उनका आचरण सम रहता है। सुत्तनिपात में कहा गया है - जिस प्रकार मैं हूँ, वैसे ही संसार के सभी प्राणी हैं। अतः संसार के प्राणियों को अपने सदृश समझकर आचरण करना चाहिए। " श्रीमद्भगवद्गीता वैदिक परम्परा का एक प्रतिनिधि ग्रन्थ है जिसमें स्पष्ट रूप से निरूपित है कि कर्म, भक्ति तथा ध्यान आदि का उद्देश्य समत्व है। बिना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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